: ११८ : आत्मधर्म: १३६
पहेलांं मुनि थईने व्यवहारचारित्र पाळो, ने पछी भगवान पासे जईने सम्यग्दर्शन पामशुं––एम जे
माने छे तेने तो मुनिदशानी पण खबर नथी ने सम्यग्दर्शननी पण खबर नथी.
[शुद्धोपयोगरूप मुनिदशा]
सम्यग्दर्शनपूर्वक वैराग्य थतां वस्त्रादि समस्त परिग्रह छोडीने, अंर्तस्वभावना अवलंबने शुद्धोपयोगी
चारित्र प्रगट्युं तेनुं नाम मुनिदशा छे. जैनमुनिओ आवा होय छे. ते मुनि शुद्धोपयोग वडे पोते पोताने
अनुभवे छे. शुद्धोपयोगरूप वीतरागी चारित्र ते ज खरी मुनिदशा छे, ए सिवाय शुभरागमां के शरीरनी
दिगंबर दशामां खरेखर मुनिपणुं नथी. मुनिओने पंचमहाव्रत, २८ मूळगुण वगेरे होय छे, ते शुभोपयोग होय
भले, पण ते शुभोपयोग वडे कंई मुनिदशा नथी. मुनि खरेखर ते शुभने आदरता नथी पण अंतरमां
शुद्धोपयोगने ज आदरे छे. केवळज्ञान शुद्धोपयोग वडे ज सधाय छे. छठ्ठा गुणस्थाने पण त्रण कषायना
अभावरूप जे निर्विकारी चारित्र छे ते ज मुनिपणुं छे, त्यां राग छे ते कांई मुनिपणुं नथी, मुनि ते रागमां के
शरीरनी क्रियामां ममत्व करता नथी.
[परद्रव्य क परभवम मत्वन अभव]
पोताना जे ज्ञानादि स्वभाव छे तेने ज पोताना माने छे, ए सिवाय कोईपण परद्रव्यमां अहंबुद्धि करता
नथी तेम ज रागादि परभावोमां ममत्व करता नथी. जो के चोथा गुणस्थानवाळो समकिती पण पोताना
ज्ञानादि स्वभावने ज पोतानुं स्वरूप माने छे ने परद्रव्यमां के परभावमां ममत्व करतो नथी, पण अहीं
मुनिदशाने योग्य वीतरागी शुद्धोपयोग सहितनी वात छे.
[परने ईष्ट – अनिष्ट मानता नथी ने राग – द्वेष करता नथी.]
पर द्रव्यमां अहंबुद्धि न होवा छतां, परद्रव्य तथा तेना स्वभावो ज्ञानमां स्वयं प्रतिभासे छे तेने मुनि जाणे
छे खरा, पण तेने ईष्ट–अनिष्ट मानीने राग–द्वेष करता नथी. समकितीने पण परमां ईष्ट–अनिष्टपणानी बुद्धि तो
नथी, पण हजी राग–द्वेष थाय छे, ने मुनिदशामां तो घणी ज वीतरागता प्रगटी छे. मुनि परचीजने जाणता ज
नथी––एम नथी. आकुळताथी परने जाणवा नथी जता, पण परद्रव्य सहेजे ज्ञानमां जणाय छे तेने जाणे छे खरा,
परंतु तेमां क्यांय ममत्व करता नथी, तेम ज क्यांय ईष्ट–अनिष्टपणुं मानता नथी ने राग–द्वेष करता नथी.
[परथी सुखदु:ख मानता नथी ने हर्षशोक करता नथी.]
वळी शरीरनी अनेक अवस्था थाय छे, रोगादि थाय, तेम ज बहारमां अनेक प्रकारनां निमित्तो बने छे
परंतु तेमां जरापण सुख–दुःख मानता नथी. परमां ईष्ट–अनिष्टपणुं मानीने राग–द्वेष करता नथी ने सुख–दुःख
मानता नथी––आवी मुनिनी दशा होय छे. ईन्द्र आवीने पूजा करे, के सिंह–वाघ आवीने शरीरने फाडी खाय,
तेमां मुनि सुखदुःख मानता नथी, समकिती पण परथी सुखदुःख मानता नथी, परंतु मुनिने तो ते उपरांत
स्वरूपनी स्थिरताथी घणी वीतरागता थई गई छे तेथी हर्ष. शोक थता नथी.
[बाह्यक्रिया खेंचीने – ताणीने करता नथी]
पोतानी मुनिदशाने योग्य बाह्यक्रिया जेम बने छे तेम बने छे, परंतु तेने खेंची–ताणीने करता नथी.
उदासीनपणे सहेजे बहारनी क्रिया बने छे. मारे आटला वखतमां अमुक विहार करवो ज पडशे, अमुक प्रसंगे
मारे बोलवुं ज पडशे–एवो बाह्यक्रियानो हठाग्रह मुनिने होतो नथी. अहीं ‘मुनिदशाने योग्य’ होय एवी
बाह्यक्रियानी वात छे. मुनिदशामां योग्य न होय एवी क्रिया मुनिने होय नहि–एवो ज मेळ छे.
[उपयोगने बहु भमावता नथी.]
मुनि पोताना उपयोगने बहु भमावता नथी, पण उदासीन थई निश्चलवृत्तिने धारण करे छे. त्रण
कषायोनो नाश थईने घणी वीतरागी स्थिरता प्रगटी छे तेथी उपयोगने बहु भमावता नथी. बहारनुं आ जाणी
लउं, ने ते जाणी लउं, आटलां पुस्तक वांची लउं–एम ज्यां त्यां उपयोगने भमावता नथी. जो के हजी स्वरूपमां
पूरेपूरो उपयोग थंभ्यो नथी एटले बहारमां पण उपयोग जाय छे पण उपयोगने बहु भमावता नथी,
मुख्यपणे तो शुद्धोपयोगने ज साधे छे. मुनिओने शुद्धोपयोगनी प्रधानता छे ने शुभोपयोग गौण छे.