Atmadharma magazine - Ank 136
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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माह: २४८१ : ११९ :
[कदाचित् शुभोपयोग थाय छे, तेने उपादेय मानता नथी.]
कदाचित् मंदरागना उदयथी शुभोपयोग पण थाय छे; संज्वलन कषायनी कर्मप्रकृतिना तीव्र उदयथी
शुभोपयोग थाय छे––एम न कह्युं. संज्वलनना तीव्र उदयथी छठुं गुणस्थान थाय छे एम गोम्मटसारजीमां कह्युं
छे ते निमित्तथी कह्युं छे, खरेखर जीवने पोताने तेवा रागनो उदय थतां छठुं गुणस्थान थाय छे. मुनिओने
वारंवार निर्विकल्पदशा आव्या ज करे छे एटले शुद्धोपयोगनो प्रयत्न वर्त्या ज करे छे. पंचमहाव्रत वगेरेनो
विकल्प सदा य रह्या ज करे–एम नथी होतुं. माटे कह्युं के कदाचित् मंदरागना उदयथी शुभोपयोग ‘पण’ थाय
छे; ‘पण’ कहीने शुभोपयोगनी गौणता बतावी छे, मुख्य उद्यम तो शुद्धोपयोगनो ज छे. शुभोपयोग वखते
मुनी शुद्धोपयोगनां बाह्य साधनोमां,–स्वाध्याय, महाव्रत वगेरेमां अनुराग करे छे. परंतु ते रागभावने पण
हेय जाणीने दूर करवा ईच्छे छे. जुओ अहीं शुभोपयोगने शुद्धोपयोगनुं बाह्य साधन तो कह्युं पण तेने हेय
कह्यो छे, एटले के शुभने हेय करीने अंतर स्वभावना अवलंबने शुद्धोपयोग प्रगट करे तो ते शुभने बाह्य
साधन कहेवाय. शुद्धोपयोगनुं खरुं साधन तो अंर्तस्वभावनुं अवलंबन ज छे. अहीं एम जाणवुं के मुनिने
छठ्ठा गुणस्थाने शुभोपयोग होय छे, पण तेना आधारे मुनिपणुं टक्युं नथी, मुनीपणुं तो ते वखते पण
अंर्तस्वभावना अवलंबने थयेली वीतरागी स्थिरताथी ज टक्युं छे. मुनिपणुं ते संवर–निर्जरारूप छे, ने
शुभोपयोग तो आस्रव छे. मुनि ते शुभ रागने हेय जाणे छे. जे शुभरागने उपादेय माने तेने साचुं मुनिपणुं
होतुं नथी.
[अशुभपरिणति तो थती ज नथी.]
जीवनी परिणतिना त्रण प्रकार छे: शुद्धपरिणति. शुभपरिणति, ने अशुभपरिणति. तेमां मुनिने
मुख्यपणे शुद्धपरिणति तथा गौणपणे शुभपरिणति होय छे तेनी वात उपर करी. हवे अशुभपरिणति तो
मुनिने होती ज नथी–एम कहे छे. मुनिओने तीव्र कषायना उदयनो तो अभाव छे तेथी हिंसा वगेरे
अशुभोपयोगनी परिणतिनुं तो तेमने अस्तित्व ज रह्युं नथी. जो के सूक्ष्म करणानुयोगनी अपेक्षाए तो
शास्त्रमां छठ्ठा गुणस्थाने पण आर्त्तध्यानना अशुभपरिणाम होवानुं कह्युं छे, कोई मुनिने क्यारेक तेवा
अशुभपरिणाम थई जाय छे, पण अहीं सामान्यपणे वात करी छे, सामान्यपणे तो मुनिओने अशुभ परिणति
होती ज नथी. मुख्यपणे मिथ्याद्रष्टिने ज अशुभपरिणति गणवामां आवी छे. समकिती गृहस्थने
शुभपरिणतिनी प्रधानता होय छे ने शुद्धपरिणति गौणपणे होय छे. मुनिओने शुद्धपरिणति मुख्य होय छे ने
शुभपरिणति गौणपणे होय छे, अशुद्धपरिणति तो तेमने गणी ज नथी.
[अंतरंगदशापूर्वकनी बाह्य दिगंबर सौम्य मुद्रा]
ए प्रमाणे मुनिनी अंतरंगदशानुं स्वरूप कह्युं, तेवी अंतरंगदशापूर्वक बहारमां केवी दशा होय छे ते हवे
ओळखावे छे. उपर कही तेवी अंतरंगदशा थतां मुनि बाह्यमां दिगंबर सौम्य मुद्राधारी थाय छे. मुनिनी
बाह्यमुद्रा पण उपशांत...ठरी गयेली...सौम्य होय छे. शरीरनां बधां अंगो विकार रहित उपशांत थई गयां छे.
मुनिने शरीर उपर वस्त्रादि होतां नथी तेम ज शरीर संस्कार वगेरे विक्रिया तेमने होती नथी. जुओ,
अंतरंगदशा सहितनी आ वात छे.
अंतरमां त्रण कषायनो नाश थईने शुद्धोपयोगरूप वीतरागी मुनिदशा प्रगटे त्यां बहारमां शरीरनी
दिगंबर सौम्यदशा न थाय एम बने नहि.
पण अंतरंगमां शुद्धोपयोगरूप मुनिदशा प्रगट्या वगर, एकलुं बहारनुं दिगंबरपणुं होय तेने कांई
मुनिदशा कहेवाय नहि. माटे अंतरंग अने बाह्यदशानो मेळ जेम छे तेम ओळखवो जोईए.
[िथ्द्रिष्ट द्रव्ि त्त् .]
जैनमुनिओने तो अंतरनी शुद्धोपयोगदशापूर्वक बहारमां दिगंबर द्रव्यलिंग होय छे. अंतरंगदशाने
जाण्या वगर एकला बहारना द्रव्यलिंगथी ज जे पोताने मुनिपणुं माने ते तो संसारतत्त्व ज छे. संसार शुं छे?
के जीवनो उदयभाव ते ज संसारतत्त्व छे. मिथ्याद्रष्टि जीव द्रव्यलिंगी थाय तो पण तेणे संसार जरा पण छोड्यो
नथी, केमके ते उदयभावमां ज ऊभो छे तेथी ते संसारमां