क्षायिकभाव प्रगट्यो छे तेटलो संसार छूटी गयो छे, मिथ्यात्वादि छूटतां अनंतो संसार तो तेने छूटी गयो छे.
माटे मिथ्याद्रष्टि मुनि करतां सम्यग्द्रष्टि गृहस्थने श्रेष्ठ कह्यो छे. मिथ्याद्रष्टि मुनि तो संसारमार्गी छे, ने
सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ तो मोक्षमार्गी छे. अहीं तो साचा भावलिंगी मुनिओनी वात छे. ज्यां अंतरंगदशापूर्वक
बाह्य दिगंबरदशा न होय त्यां मुनिपणुं होतुं नथी. अंतरंगमां मुनिदशानी शुद्धता प्रगटी होय ने गृहवासमां
रहेता होय–एम कदी न बने. मुनिओ वनजंगलमां वसे छे.
ग्रहण––ए प्रमाणे २८ मूळगुण छे, तेमां मुनि विपरीतता आववा देता नथी. ज्यां नग्नताने बदले
वस्त्रसहितपणुं होय, स्थितिभोजन एटले ऊभा ऊभा हाथमां आहार–तेने बदले बेठा बेठा के वासण वगेरेमां
भोजन होय, तथा दिवसमां एक ज वार आहार ने बदले अनेक वार आहार होय,–ईत्यादि प्रकारे मूळ गुणमां
भंग होय त्यां मुनिदशा होती नथी; छतां तेमां जे मुनिदशा माने तेने मुनिनी ओळखाण नथी एटले गुरुपदनी
तेने खबर नथी. अहीं तो अंतरनी शुद्धोपयोगदशा सहितना २८ मूळगुणोनी वात छे. अंतरनी दशा वगर
एकला शुभरागथी २८ मूळगुण पाळे तो ते द्रव्यलिंग छे पण तेने खरेखर मुनिदशा नथी, अने २८ मूळगुणमां
पण जेने विपरीतता होय तेने तो (भले शरीरनी दिगंबरदशा होय तो पण) द्रव्यलिंग पण साचुं नथी.
अच्युतिरूप परीषह होय. पण जेने हजी मार्ग ज प्रगट्यो नथी एवा मिथ्याद्रष्टिने परीषह होतो नथी. परीषह
ते कांई दुःख नथी. भूख–तरस, टाढ–तडका वगेरेनां दुःख वेठवां तेने अज्ञानी परीषह कहे छे, पण ते वात साची
नथी. जेमां दुःख लागे के अंतरंगमां राग–द्वेष थाय ते परीषह नथी. दुःख लागे ते तो अशुभ–पापभाव छे.
अथवा, राग–द्वेषनी उत्पत्ति थाय पछी तेने जीतवा तेनुं नाम परीषहजय–एम कोई कहे तो ते पण सत्य नथी.
‘मार्गथी अच्युतपणुं’ एटले के वीतरागभावरूप मार्गथी खसीने राग–द्वेषनी उत्पत्ति ज न थवी ते परीषह छे.
पण राग–द्वेष थाय तेटलुं तो मार्गथी च्युतपणुं छे, ते परीषह नथी. मुनिने अंतरमां स्वरूपस्थिरता वडे मार्ग
प्रगट्यो छे, ने गमे तेवा अनुकूळ–प्रतिकूळ उपसर्ग आवे तो पण तेओ राग–द्वेष करता नथी ने मार्गथी च्युत
थता नथी, तेमने परीषह छे ने ते निर्जरानुं कारण छे.
निर्विकल्पदशा तो थया ज करे, ने ते उपरांत निर्विकल्पध्यानमां विशेष एकाग्रतानो प्रयत्न करे छे. कलाकोना
कलाको सुधी लांबो काळ ऊंघमां पड्या रहे त्यां तो विशेष प्रमाद छे, एवो प्रमाद होय त्यां मुनिदशा न होय.
मुनिने स्वरूपनी जागृति घणी वर्ते छे एटले वारंवार निर्विकल्प अप्रमत्त दशा आव्या ज करे छे, एक साथे
अंतर्मुहूर्त करतां वधारे वखतनी निद्रा मुनिने होय नहि. मुनिओ ध्यानमां एकाग्रता वडे अंतरमां लीन
रहेवानो वारंवार प्रयत्न कर्या करे छे. कोई वार अध्ययन वगेरे बाह्यक्रियामां प्रवर्ते छे; तथा कोई वार
मुनिधर्मने सहकारी शरीरनी स्थिति अर्थे योग्य आहार–विहारादि क्रियाओमां सावधान थाय छे.