Atmadharma magazine - Ank 136
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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माह: २४८१ : १२१ :
तेमां खरुं तो अंतरमां जे शुद्धोपयोगी वीतराग चारित्र छे ते ज मुनिपणुं छे, तेनी साथे शुभराग केवो होय ने
बाह्य निमित्तो केवां होय–ते बताव्युं छे. जेओ जैन मुनि छे ते सर्वेनी उपर कह्युं तेवी ज अंतर–तथा बाह्य दशा
होय छे; एनाथी विपरीत होय तो ते जैन मुनि नथी; अने जैन सिवाय बीजामां तो कदी साची मुनिदशा होती
ज नथी. उपर मुनिदशानुं जेवुं अंतरंग अने बाह्य स्वरूप कह्युं तेवी ज अवस्था सर्वे जैनमुनिओनी होय छे,–
तेमां कोई अपवाद नथी. जे कोई जैनमुनि होय––आचार्य होय, उपाध्याय होय के साधु होय, चोथा काळना होय
के पंचमकाळना होय, महाविदेहना होय के भरतक्षेत्रना होय, जिनकल्पी होय के स्थविरकल्पी होय, ते बधा य
जैनमुनिओनी दशा उपर कह्युं तेवी ज होय छे, तेमां जो विपरीतपणुं होय तो ते जैनमुनि नथी एम समजवुं.
णमो लोए सव्व साहूणं––एम कह्युं तेमां आवी दशावाळा सर्वे साधुओनो समावेश थाय छे, आनाथी जे
विपरीत होय ते कोईनो तेमां समावेश थतो नथी.
[धन्य ते मुनिदशा!]
अहो! मुनिदशा तो अलौकिक पद छे, मुनि तो परमेष्ठी पदमां भळी गया छे.
आचार्य परमेष्ठीने तथा उपाध्याय परमेष्ठीने, उपर कही तेवी मुनिदशा उपरांत बीजी शुं
विशेषता होय छे ते हवे कहे छे.
[आचार्य परमेष्ठी]
उपर बधा य जैनमुनिओनुं स्वरूप बताव्युं, तेमनामां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी अधिकता वडे
प्रधानपदने पामीने जेओ संघना नायक थया छे ते आचार्य छे. ते आचार्य पण मुख्यपणे तो
निर्विकल्पस्वरूपाचरणमां ज निमग्न छे. अंतरमां शुद्धोपयोगी वीतरागचारित्रनी मुख्यता राखीने ज वात छे,
आचार्यने पण निर्विकल्प आनंदनो अनुभव करवो ते ज मुख्य आचरण छे. परंतु कदाचित् अन्य धर्मलोभी
जिज्ञासु जीवोने देखीने, करुणाबुद्धि थतां तेमने धर्मोपदेश आपे छे, दीक्षाग्राहक जीवोने दीक्षा आपे छे. कोईने
पराणे सामेथी दीक्षा नथी आपता, पण जे जीव वैरागी थई दीक्षा लेवा आवे छे तेनी पात्रता जोईने दीक्षा आपे
छे. तथा जे जीव पोताना दोष प्रगट करीने प्रायश्चित लेवा आवे छे तेने प्रायश्चित आपे छे. आ रीते, अंतरना
निर्विकल्प आनंदना आचरणपूर्वक आवा दीक्षा–शिक्षा वगेरेनुं आचरण करवा–कराववावाळां श्री आचार्य
परमेष्ठी छे, तेमने अमारा नमस्कार हो!
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[उपाध्याय परमेष्ठी]
वळी, उपर कही तेवी शुद्धोपयोगरूप मुनिदशामां जे मुनि घणा जैनशास्त्रना ज्ञाता होई संघमां पठन–
पाठनना अधिकारी बन्या होय––ते उपाध्याय छे. ते उपाध्याय समस्त शास्त्रना प्रयोजनभूत अर्थने जाणी,
एकाग्र थईने पोताना स्वरूपने ध्यावे छे, एटले उपाध्यायने पण स्वरूपना अध्ययननी ज मुख्यता छे; पण
ज्यारे स्वरूपमां उपयोग न थंभे त्यारे पोते आगमने भणे छे. तेम ज धर्मबुद्धिवान अन्य जीवोने भणावे छे.
ए प्रमाणे पोताना अंर्तस्वरूपमां एकाग्रताना अभ्यासनी मुख्यतापूर्वक, समीप वर्ती भव्य जीवोने अध्ययन
कराववावाळा श्री उपाध्याय परमेष्ठी छे, तेमने अमारा नमस्कार हो!
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[साधु परमेष्ठी]
शुद्धोपयोगरूप चारित्रना धारक जैनमुनिओमां, उपर कहेल आचार्य के उपाध्याय पदवीना धारक
सिवायना जे मुनिओ छे ते बधा य साधु छे; ते साधुओ शुद्धोपयोग साधन वडे पोताना आत्मस्वभावने साधे
छे; परद्रव्यमां ईष्ट–अनिष्टपणुं मानीने, पोतानो उपयोग त्यां फसाय नहि, तेमज शुद्धोपयोगरूप जे दशा प्रगटी
छे तेमां भंग न पडे––ए रीते अंतरमां एकाग्रता वडे उपयोगने साधे छे, तथा तेना बाह्यसाधनभूत तपश्चरण
वगेरे क्रियामां प्रवर्ते छे, कदाचित् भक्ति–वंदन–जात्रा वगेरे कार्योमां पण प्रवर्ते छे,–आवी जातनो भाव ते
भूमिकामां छठ्ठा गुणस्थाने होय छे, पण त्यां मुख्यता तो शुद्धोपयोग वडे स्वरूपने ज साधवानी छे.–आवा
स्वरूपना साधक श्री