बाह्य निमित्तो केवां होय–ते बताव्युं छे. जेओ जैन मुनि छे ते सर्वेनी उपर कह्युं तेवी ज अंतर–तथा बाह्य दशा
होय छे; एनाथी विपरीत होय तो ते जैन मुनि नथी; अने जैन सिवाय बीजामां तो कदी साची मुनिदशा होती
ज नथी. उपर मुनिदशानुं जेवुं अंतरंग अने बाह्य स्वरूप कह्युं तेवी ज अवस्था सर्वे जैनमुनिओनी होय छे,–
के पंचमकाळना होय, महाविदेहना होय के भरतक्षेत्रना होय, जिनकल्पी होय के स्थविरकल्पी होय, ते बधा य
जैनमुनिओनी दशा उपर कह्युं तेवी ज होय छे, तेमां जो विपरीतपणुं होय तो ते जैनमुनि नथी एम समजवुं.
आचार्यने पण निर्विकल्प आनंदनो अनुभव करवो ते ज मुख्य आचरण छे. परंतु कदाचित् अन्य धर्मलोभी
जिज्ञासु जीवोने देखीने, करुणाबुद्धि थतां तेमने धर्मोपदेश आपे छे, दीक्षाग्राहक जीवोने दीक्षा आपे छे. कोईने
पराणे सामेथी दीक्षा नथी आपता, पण जे जीव वैरागी थई दीक्षा लेवा आवे छे तेनी पात्रता जोईने दीक्षा आपे
छे. तथा जे जीव पोताना दोष प्रगट करीने प्रायश्चित लेवा आवे छे तेने प्रायश्चित आपे छे. आ रीते, अंतरना
निर्विकल्प आनंदना आचरणपूर्वक आवा दीक्षा–शिक्षा वगेरेनुं आचरण करवा–कराववावाळां श्री आचार्य
परमेष्ठी छे, तेमने अमारा नमस्कार हो!
ज्यारे स्वरूपमां उपयोग न थंभे त्यारे पोते आगमने भणे छे. तेम ज धर्मबुद्धिवान अन्य जीवोने भणावे छे.
ए प्रमाणे पोताना अंर्तस्वरूपमां एकाग्रताना अभ्यासनी मुख्यतापूर्वक, समीप वर्ती भव्य जीवोने अध्ययन
कराववावाळा श्री उपाध्याय परमेष्ठी छे, तेमने अमारा नमस्कार हो!
छे; परद्रव्यमां ईष्ट–अनिष्टपणुं मानीने, पोतानो उपयोग त्यां फसाय नहि, तेमज शुद्धोपयोगरूप जे दशा प्रगटी
छे तेमां भंग न पडे––ए रीते अंतरमां एकाग्रता वडे उपयोगने साधे छे, तथा तेना बाह्यसाधनभूत तपश्चरण
वगेरे क्रियामां प्रवर्ते छे, कदाचित् भक्ति–वंदन–जात्रा वगेरे कार्योमां पण प्रवर्ते छे,–आवी जातनो भाव ते
भूमिकामां छठ्ठा गुणस्थाने होय छे, पण त्यां मुख्यता तो शुद्धोपयोग वडे स्वरूपने ज साधवानी छे.–आवा