Atmadharma magazine - Ank 136
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 16 of 21

background image
माह: २४८१ : १२३ :
[रागादिकनी हीनता कोने होय?]
ज्ञाननी हीनता वडे निंद्यपणुं तथा ज्ञाननी विशेषता वडे पूज्यपणुं कह्युं, तेमां हीनता अने विशेषतानो
अर्थ उपर समजाव्यो; हवे रागादिकनी अधिकता वडे निंद्यपणुं अने रागादिकनी हीनता वडे पूज्यपणुं कह्युं तेमां
हीनता एटले शुं? ते कहेवाय छे. रागादिकनी हीनता एटले के नाश, सम्यग्दर्शनपूर्वक ज थई शके छे;
मिथ्याद्रष्टिने रागादिनी मंदता भले होय पण तेने रागादिनी हीनता थती नथी. रागादि रहित आत्माना
शुद्धस्वरूपनी जेने ओळखाण न होय तेने रागादिनी यथार्थ हीनता थई शके ज नहि. केमके ते कोना अवलंबने
रागनी हीनता करशे? रागथी भिन्न स्वरूपनी जेने खबर नथी ने राग साथे ज एकता माने छे तेने रागना
अवलंबने बहु तो रागनी वर्तमान पूरती मंदता थाय पण रागनी हीनता न थाय एटले के नाश न थाय. राग
रहित एवा ज्ञानस्वभावना अवलंबने ज रागनी हीनता ने ज्ञानादिनी विशेषता थाय छे.
मिथ्याद्रष्टि जीव राग–द्वेषनी मंदता करीने भले नवमी ग्रैवेयक सुधी जाय, तो पण ते निंद्य छे, रागादिनी
हीनता तेने जरापण नथी, केम के राग साथे ज एकत्वबुद्धि पडी छे एटले अनंतानुबंधी आदि बधा कषायो
तेने वर्ते ज छे. जे रागने पोतानुं स्वरूप माने अथवा तो तेनाथी लाभ माने ते तेनी हीनता केम करे? माटे
अज्ञानीने रागनी हीनता यथार्थपणे होती ज नथी.
[पंचपरमेष्ठीनुं वीतरागविज्ञानपणुं]
आत्मा रागरहित ज्ञानस्वरूप छे, तेना भानपूर्वक रागादिकनी हीनता तथा ज्ञाननी अधिकता एवा
वीतरागविज्ञान वडे जीवनुं महानपणुं ने पूज्यपणुं छे. पंचपरमेष्ठीमां अरिहंत अने सिद्धभगवानने तो
रागादिकनो संपूर्ण अभाव थयो छे ने परिपूर्ण ज्ञान खीली गयुं छे, ए रीते तेमने संपूर्ण वीतरागविज्ञान छे.
आचार्य–उपाध्याय ने साधुने सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक शुद्धोपयोगी चारित्रथी रागादिकनी घणी हीनता थई
गई छे तथा ज्ञाननी घणी विशेषता थई गई छे, परंतु त्यां हजी रागनो अल्प अंश रह्यो छे ने केवळज्ञान थयुं
नथी, माटे त्यां एकदेश वीतरागविज्ञान छे. पूरुं नथी ते अपेक्षाए एकदेश कह्युं छे.–आ रीते वीतरागविज्ञानथी
पंचपरमेष्ठी भगवंतो पूज्य छे.
[चोथा गुणस्थाने पण वीतरागविज्ञान]
जो के चोथा गुणस्थाने पण सम्यग्द्रष्टिने अंशे वीतरागविज्ञान तो छे, ज्ञानानंदस्वरूप आत्माना भानथी
त्यां सम्यग्ज्ञान थयुं छे ने अनंतानुबंधी राग–द्वेष टळी गया छे,–ए रीते चोथा गुणस्थाने पण
वीतरागविज्ञाननो अंश छे, परंतु त्यां परमेष्ठीपद नथी, तेथी अहीं पंचपरमेष्ठीमां तेनी वात नथी लीधी.
[परमेष्ठी पद]
परमपदमां जे स्थित छे ते परमेष्ठी छे. आत्मानो शुद्धचैतन्यस्वभाव ते परमपद छे, ते परमपदमां जे
स्थित छे ते परमेष्ठी छे. अरिहंत–सिद्ध–आचार्य–उपाध्याय अने साधु ए पांचे य परम चैतन्यपदमां स्थित
होवाथी परमेष्ठी छे. अंतरमां शुद्धोपयोगना साधन वडे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र रूप रत्नत्रय प्रगट करीने,
जेमणे त्रण कषायनो नाश कर्यो छे ने स्वरूपमां घणी स्थिरता प्रगट करी छे–एवा मोक्षमार्गी मुनिवरो
परमेष्ठीपदमां भळी गया छे. सर्वे मुनिओनी त्रणे काळ बाह्य–अभ्यंतर निर्ग्रंथ होय छे. आ सिवाय शरीर
उपर वस्त्रनी एक लंगोटी पण धारण करवानी जेनी ईच्छा छे तेने त्रण कषायनो अभाव थयो नथी ने
स्वरूपस्थिरता थई नथी; त्यां सम्यग्दर्शन सहित उत्कृष्टमां उत्कृष्ट पंचगुणस्थाननुं श्रावकपणुं होई शके, परंतु
तेने मुनिदशा न होई शके ने पंचपरमेष्ठीमां ते न आवे.
[पंचपरमेष्ठीनुं स्वरूप ओळखे तो प्रयोजनी सिद्धि थाय.]
अहो! पंचपरमेष्ठीपद शुं चीज छे तेना महिमानी लोकोने खबर नथी. घणा लोको रोज ‘णमोक्कार
मंत्र’ बोली जाय छे, पण ते णमोक्कार मंत्र मां जे पंचपरमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार करवामां आव्या छे तेमनुं
स्वरूप तो ओळखता नथी. जेमने पोते नमस्कार करे छे तेमनुं स्वरूप जाण्या वगर प्रयोजननी सिद्धि क्यांथी
थाय? हुं कोने नमस्कार करुं छुं ने शा माटे नमस्कार करुं छुं–ते ओळखे तो प्रयोजननी सिद्धि थाय.