Atmadharma magazine - Ank 136
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: १२४ : आत्मधर्म: १३६
प्रथम तो जीवने सुख थाय ते प्रयोजन छे; ते सुख वीतरागविज्ञानथी ज थाय छे, एटले
वीतरागविज्ञान ते प्रयोजन थयुं. अरिहंतादि पंचपरमेष्ठी भगवंतो वीतरागविज्ञानस्वरूप छे, वीतरागविज्ञान
वडे तेमनामां महानपणुं होवाथी तेओ पूज्य अने वंदनीक छे. आ प्रमाणे वीतरागविज्ञान स्वरूपे जो
पंचपरमेष्ठी भगवंतोने ओळखे तो पोतामां पण स्वभाव अने परभावनुं भेदज्ञान थईने वीतरागविज्ञानरूप
प्रयोजननी सिद्धि थाय.
अपूर्व
जडथी अने जडना कार्योथी जुदो, हुं ज्ञानानंदस्वरूप छुं–एम पोताना
स्वभावनो निर्णय जीवे पूर्वे एक सेकंड पण नथी कर्यो तेथी ते अपूर्व छे. ए
सिवाय बीजुं बधुं पूर्वे करी चूक्यो छे, पण तेनाथी चार गतिनुं परिभ्रमण मट्युं
नहि, ते कांई अपूर्व नथी. भगवान! एक वार तारा चैतन्यतत्त्वने सांभळीने
तेनो अपूर्व निर्णय कर. तारी अंर्तशक्तिमां सर्वज्ञपणुं पडेलुं छे, तेने भूलीने
पोताने विकार जेटलो तुच्छ माने छे अने हुं जडनां कार्य करुं–एवुं मिथ्या
अभिमान करे छे ते पाप छे ने दुःखनुं कारण छे. अंतर्मुख थईने पोताना परिपूर्ण
चिदानंद स्वभावनो अपूर्व निर्णय करवो; ते धर्म छे ने ते सुखनुं कारण छे.
आनंदनो उपाय
आत्मा दुःख टाळीने सुखी थवा मांगे छे एटले आनंद लेवा मांगे छे. आनंद तो आत्माना स्वभावमां
ज छे, पण अज्ञानने लीधे बहारथी आनंद लेवा मांगे छे. आत्मानो आनंद बहारमां छे ज नहि. आनंदनो
सागर अंतरमां भर्यो छे पण तेनी सामे कदी जीवे जोयुं नथी; चैतन्यना आनंदने चूकीने, बहारमां ज आनंद
मानी–मानीने अनादिथी संसारमां रखडी रह्यो छे. नानी वयमां श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
‘सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो?’
अरे जीवो! बहारना ईन्द्रियविषयोमां सुख मानतां अंतरना स्वभावनुं अतीन्द्रिय सुख चूकी जवाय छे.
‘बहारमां मारुं सुख नथी, मारुं सुख तो मारा अंर्तस्वभावमां ज छे’ एम विश्वास करीने अंतरना
चिदानंदतत्त्वनुं मनन करो. एकवार आवी ओळखाण करीने आत्मामां परम सत्यनो भणकार तो लावो.
चैतन्यतत्त्वना भणकार विना बहारमां आनंद मानी–मानीने अनादिकाळथी जीव क्षणे क्षणे भावमरण करी
रह्यो छे. जो एक क्षण पण आत्मानुं सत्य स्वरूप समजे तो ए भावमरणनुं भयंकर दुःख मटे ने परमआनंदरूप
मुक्तदशा प्रगटे.
‘अहो! मारी चीज तो अंतरना ज्ञानस्वभावथी भरेली छे, आनंदनां निधान मारामां ज भर्यां छे, पण
तेने चूकीने अत्यार सुधी हुं बहार रखड्यो, छतां मारां चैतन्यनिधान एवां ने एवां परिपूर्ण छे’–आम
अंर्तवस्तुनो स्वीकार करवो ने तेनो महिमा करीने स्वसन्मुख थवुं ते अपूर्व आत्मकल्याणनुं मूळ छे, ते ज
आनंदनी प्राप्तिनो उपाय छे अने ते ज धर्म छे.
(–प्रवचनमांथी)