Atmadharma magazine - Ank 136
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 18 of 21

background image
माह: २४८१ : १२५ :
सम्यग्दशन कम थय?
अने समकीतिनी द्रष्टि केवी होय?
समयसार गा. १८१ – २ – ३ उपर पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी.
[वर स. २४८० पष वद अमस: रजकट]


अनंतकाळमां पूर्वे एक सेकंड पण जीवने सम्यग्दर्शन थयुं नथी, ते सम्यग्दर्शन केम थाय? अने जेने
सम्यग्दर्शन थाय ते जीवनी केवी दशा होय? तेनी आ वात छे. आत्मानुं वास्तविक स्वरूप जेवुं छे तेवुं जीव कदी
समजयो नथी अने तेनाथी विपरीत मान्युं छे तेथी तेने आत्मानुं सम्यग्दर्शन थयुं नथी. आत्मानुं जेवुं स्वरूप
छे तेवुं जाणीने तेनी प्रतीत करे तो अपूर्व सम्यग्दर्शन थाय. ते सम्यग्दर्शन थतां जीव एम जाणे छे के अहो!
मारो आत्मा उपयोगस्वरूप छे, ते उपयोगमां ज छे, पण रागादिमां मारो आत्मा नथी. अनादिथी में रागने
मारुं स्वरूप मान्युं तोपण मारो आत्मा तो रागथी भिन्न सदा उपयोगस्वरूप ज रह्यो छे, मारो उपयोगस्वरूप
आत्मा कदी रागस्वरूप थई गयो नथी. जुओ आ धर्मीनुं भेदज्ञान! आत्मामां आवुं भेदज्ञान प्रगट करवुं ते ज
धर्मनो पायो छे, आवा भेदज्ञान वगर कदी धर्म थाय नहि.
अनंतकाळथी अजाण्युं आत्मतत्व शुं चीज छे तेनी आ वात छे. आत्मा क्यां रहेतो हशे? शुं शरीरमां
आत्मा रहेतो हशे? ना शरीर तो जड छे, तेमां आत्मा नथी. शुं रागमां आत्मा रहेतो हशे? ना; रागमां ज्ञान
नथी एटले रागमां आत्मा नथी. आत्मा तो पोताना उपयोगमां ज रहे छे. आत्मा उपयोगस्वरूप छे ते
उपयोगमां ज छे, एटले अंर्तस्वभावमां एकताथी जे निर्मळ ज्ञान दर्शन भाव प्रगट्यो तेमां आत्मा छे, पण
विकारमां के जडमां आत्मा नथी. हुं चिदानंदस्वरूप आत्मा छुं–एवी अंर्तद्रष्टि करीने स्वभावमां एकता करतां
आत्मा अनुभवमां आवे छे, पण ते द्रष्टिमां क्रोधादि के कर्म अनुभवमां आवता नथी; माटे आत्मामां ते क्रोधादि
नथी. अने ‘हुं क्रोध छुं, हुं राग छुं’ एवी क्रोधादि साथे एकपणानी द्रष्टिमां क्रोधादिनो अनुभव थाय छे पण
तेमां ज्ञानस्वरूप आत्मानो अनुभव थतो नथी; माटे ते क्रोधादिमां आत्मा नथी.–आवुं अपूर्व भेदज्ञान करीने
पोताना ज्ञानस्वरूप आत्मामां ज उपयोगनी एकता करवी ते मुक्तिमार्ग छे.
आत्मा केवो छे?–के आत्मा त्रिकाळ उपयोगस्वरूप छे. वर्तमानदशामां तेने जे क्रोधादि विकार छे ते तेनुं
वास्तविक स्वरूप नथी पण तेना गुणनी ऊलटी दशा छे. आत्माना चिदानंद स्वभावनो अनादर करीने
विकारनी रुचि करवी ते क्रोध छे, ते क्रोधमां आत्मा नथी एटले के रागादिथी लाभ मानीने विकार साथे एकत्व
बुद्धि करनारने चिदानंद स्वरूप आत्मा लक्षमां आवतो नथी. जेने विकारनी रुचि छे तेने भगवान आत्मानी
प्रीति नथी पण जड कर्मनी प्रीति छे. चैतन्यस्वभावथी विरुद्ध एवा विकारनी जेने प्रीति छे ते जीव
चैतन्यस्वभावना अनंतगुणनो तिरस्कार करे छे, ते अनंतो क्रोध छे ने ते ज मोटुं पाप छे. अनादिकाळना
परिभ्रमणमां एक समय पण पोताना चैतन्य स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी रुचि जीवे करी नथी, राग अने
आत्माना भिन्नता ज लक्षमां लीधी नथी. जयां राग अने आत्मानी भिन्नतानुं भान थयुं त्यां धर्मी जीवने
ज्ञाताद्रष्टा चैतन्यस्वभावमां ज आत्मबुद्धि थई ने रागमांथी आत्मबुद्धि छूटी गई, हवे कोई पण रागमां
हितबुद्धि ते ज्ञानीने रहेती नथी.