Atmadharma magazine - Ank 136
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: १२६ : आत्मधर्म: १३६
रागथी भिन्न चैतन्यस्वभावनुं आवुं भान करवुं ते अपूर्व छे. पहेलांं तो आ वात जीवोने श्रवणमां आववी
पण दुर्लभ छे, पूर्वे ज्यारे अनंतवार श्रवणमां आवी त्यारे जीवे यथार्थपणे लक्षगत करी नथी. अंतरमां पात्र
थईने एक वार पण जो आ वात लक्षगत करे तो अपूर्व कल्याण थया विना रहे नहि. एकला शास्त्रना
भणतरथी आ वात समजाय तेवी नथी, सत्समागमे श्रवण–मनन करीने अंतरमां घणो परिचय करे तो आ
वात लक्षगत थाय तेवी छे. पूर्वे धर्मना नामे पण जीव रागनी–विकल्पनी रुचिमां ज अटकी गयो छे, अंतरमां
रागथी पार––विकल्पथी पार चैतन्यस्वभावने कदी लक्षमां लीधो नथी. अरे! अनंतकाळे आ मनुष्य अवतार
पाम्यो तेमां आ वात ख्यालमां लईने जो अपूर्व द्रष्टि प्रगट न करे तो ढोरना अवतारमां ने मनुष्यना
अवतारमां कांई फेर नथी.
आत्मानी शक्तिमां परमेश्वरपणुं छे, सर्वज्ञता आत्मानी शक्तिमां पडी छे, तेनो विश्वास करवो जोईए.
सर्वज्ञपणुं न प्रगटे त्यां सुधी वच्चे राग आवे, पण ते रागमां धर्मीने उपादेय बुद्धि नथी, राग वखते य धर्मीने
चैतन्यस्वभावमां ज उपादेय बुद्धि वर्ते छे. ‘हुं एक समयमां परिपूर्ण ज्ञाताद्रष्टा छुं, रागनो एक अंश पण मारा
स्वरूपमां नथी’ एम पोताना ज्ञायकस्वभावनो ज्यां विश्वास आव्यो त्यां धर्मीने पुण्य–पापमां हितबुद्धि रहेती
नथी; धर्मी जीव रागादिने पोताना उपयोगमां एकपणे करतो नथी, तेथी धर्मीने उपयोगमां क्रोधादि नथी. राग
वर्ततो होवा छतां ते रागमां एकताबुद्धि नथी, ज्ञानस्वभावमां ज एकता छे, उपयोगस्वभावनी प्रीति आडे
धर्मी रागने पोतापणे देखतो ज नथी. जुओ, आ धर्मीनुं भेदज्ञान! आवुं भेदज्ञान प्रगट करवुं ते धर्मी थवानो
उपाय छे.
अहीं आचार्यदेवे अपूर्व रीते भेदज्ञान समजाव्युं छे. उपयोगमां उपयोग छे ने क्रोधादिमां उपयोग नथी;
क्रोध क्रोधमां छे ने उपयोगमां क्रोध नथी. तेवी ज रीते कर्म के नोकर्ममां उपयोग नथी ने उपयोगमां कर्म के नोकर्म
नथी. कर्म ते पूर्वे बंधायेलुं प्रारब्ध छे अने तेना निमित्ते बाह्य संयोग मळ्‌यो ते नोकर्म छे; ए कर्म तेमज नोकर्म
बंने, उपयोगथी भिन्न छे. जुओ, अहीं ‘उपयोगमां कर्म–नोकर्म नथी’ एम कह्युं एटले कर्म–नोकर्मनुं जुदुं
अस्तित्व तो छे–एम साबित थई गयुं. कोई एम कहे के ‘अमने तो प्रत्यक्ष देखाय छे के पापनो भाव कर्यो ने
पैसा मळे छे, माटे अमे पूर्वजन्मने के प्रारब्धने मानता नथी,’–तो ते मिथ्याद्रष्टि नास्तिक छे. अरे भाई!
वर्तमान पापथी पैसा नथी मळ्‌या पण तारा पूर्वना प्रारब्धथी ज मळ्‌या छे. मोटो नास्तिक होय तो पण पुर्वनुं
प्ररब्ध कबूलवुं पडे एवुं एक द्रष्टांत लईए: कोई एक शेठ छे, तद्न नास्तिक छे, पूर्वना पुण्य–पापने मानतो
नथी; हवे तेने ६० वर्षनी उंमरे एकनो एक दीकरो थयो; ते पुत्रनुं शरीर घणुं सुंदर अने कोमळ छे ने शेठने ते
बहु वहालो छे. हवे शेठने त्यां पुत्र थवानी राजाने खबर पडी अने राजाए पण खुशी थईने ते पुत्रनुं मोढुं
जोवा माटे राजदरबारमां तेडाव्यो. नास्तिक शेठ पोताना पुत्रने लईने राजासभामां आव्यो ने राजाए पुत्रने
जोयो. पुत्रनुं सुंदर अने कोमळ शरीर जोतां ज ते राजानी बुद्धि फरी अने तेने एवुं मन थयुं के हुं आनुं शरीर
कापीने तेनुं भक्षण करुं. राजाए पोतानो विचार शेठने जणाव्यो. ते सांभळतां ज शेठ कंपी ऊठ्यो अने कह्युं:
‘अरे महाराज! एम न कराय, ए सारुं काम नथी!’ राजाए कह्युं: ‘पण शेठ! आ प्रत्यक्ष देखाय छे के मने
क्षुधा लागी छे ने आनुं शरीर कापीने खाईश त्यां मारी क्षुधा मटी जशे, ने मारुं क्षुधानुं दुःख टळशे, –तो तेने
सारुं काम केम न कहेवाय?’ नास्तिक शेठ पण ए वखते कहेशे के ना, ना, राजन्! एम न होय. प्रत्यक्ष देखाय
छे–एम तमे कहो छो पण ए प्रत्यक्ष जोवामां कांईक भूल छे. भूखनु दुःख मटवानुं कारण आ हिंसा न होय, तेनुं
कारण कांईक बीजुं ज छे.
शरीर कापीने खाय ने क्षुधा मटे, तेमां खरेखर हिंसानो तीव्रपापभाव वर्तमानमां छे; ते पापभाव
कारण अने क्षुधानुं दुःख मटवुं ते कार्य–एम नथी. वर्तमानमां जे पापभाव छे ते तो महादुःखनुं कारण छे; अने
क्षुधा मटी ते तो पूर्वना तेवा प्रारब्धना उदयने लीधे तेवी साता देखाय छे. वर्तमान हिंसाना पापभावथी तो
नवुं अशुभ–प्रारब्ध बांधे छे ने तेना फळमां नरकना महा भयंकर दुःखोने ते जीव भोगवशे. पापथी दुःख मटे–
एम बने ज नहि. बहारना संयोगो पूर्वना प्रारब्ध अनुसार आवे छे. आ रीते पूर्व प्रारब्ध–कर्म छे एम तेनुं