
आत्मामां कर्म नथी. कर्म उपर जेनी द्रष्टि छे तेनी द्रष्टिमां आत्मा नथी. कर्मना उदय प्रमाणे जीवने विकार करवो
पडे–एम जे माने छे ते कर्मथी भिन्न आत्माने नथी मानतो पण कर्मने ज आत्मा माने छे. अहीं कर्मना उदय
प्रमाणे विकार थाय–ए वात तो छे ज नहि, परंतु जीवना अपराधथी जे विकार थाय ते पण खरेखर जीव नथी,
जीवनो उपयोगस्वभाव ते विकारथी भिन्न छे, विकारमां उपयोग नथी ने उपयोगमां विकार नथी,–एम अहीं
भेदज्ञान कराववुं छे.
के जड शरीर अने रोटला तारा धर्मनुं कारण छे? शरीर ते नोकर्म छे, ते नोकर्म अनुकूळ होय तो मने धर्म थाय–
एवी जेनी द्रष्टि छे तेणे नोकर्म साथे आत्मानी एकता मानी छे, उपयोगस्वरूप आत्मा अने नोकर्मनुं भेदज्ञान
तेने नथी. उपयोगस्वरूप आत्मा शरीरथी अत्यंत जुदो छे, शरीर साथे धर्मनो संबंध नथी. कोई वार धर्मात्माने
पण शरीरमां रोग थाय, अने अधर्मी पापी जीवनुं शरीर पण नीरोग होय. शरीरमां रोग थाय तेथी कांई
साधकने पोताना धर्ममां शंका नथी पडती.
सांभळीने एम लागे के वाह! केवी धर्मनी निःशंकता! पण ज्ञानी कहे छे ने ते मोटो मूढ छे. शुं तारामां धर्म
थाय तेथी दिकरानुं आयुष्य वधी जाय? अने दिकरानुं आयुष्य ओछुं होय तो शुं आ जीवनो धर्म चाल्यो जाय?
धर्मी तो आ शरीरने पण पोताथी तद्न भिन्न जाणे छे, तो पछी बीजानो संयोग लांबो काळ रहे के ओछो काळ
रहे––एनी साथे तेना धर्मनो शुं संबंध छे? धर्मी थाय तेना पुत्रनुं आयुष्य लांबुं ज होय––एवुं नथी अरे! कोई
वार धर्मीने पोताने पण देहनुं आयुष्य थोडुं होय. लांबु आयुष्य होय तो ज धर्मी कहेवाय–एम नथी. आयुष्य
टूंकुं होय के लांबुं होय––पण जेने आयुष्य उपर द्रष्टि छे तेने धर्म थतो नथी. धर्मी तो जाणे छे के आयुष्य मारुं
नथी पण शरीरनुं छे, शरीर जड छे, हुं तो उपयोगस्वरूप अनादिअनंत छुं, मारा उपयोगना आधारे ज मारे
धर्म छे.–आवी द्रष्टि प्रगट करवी ते धर्मी थवानो उपाय छे.
आत्माने समजीने भवभ्रमणथी मारो छूटकारो थाय एवी रीत बतावो... आत्मानुं वास्तविक स्वरूप मने
समजावो.
जे कहीए छीए ते धीरो थईने सांभळ. आ वातनी हा पाडीने रुचि करतां तेमां परिणमन थया विना रहे नहीं.
आत्माने ओळखीने तेनी रुचि अने एकाग्रता करवी ते आत्मानी आराधनानो राह छे. पण ते माटे आत्मानी
खरी लगनी लागवी जोईए. साची लगनी लागे तेने आत्मानुं स्वरूप समजाया वगर रहे नहीं.