माह: २४८१ : ११३ :
त्यां न होय एम बने नहि. भगवाननी देशना खाली जाय नहि. कोई एम कहे के भगवान महावीरनी पहेली
देशना खाली गई,–एवुं अच्छेरुं थयुं! तो तेम बने नहि. जेम सिद्धशिला उपरथी हेठे पडे एवुं अच्छेरुं कदी
बनतुं नथी तेम तीर्थंकर भगवाननी देशना खाली जाय एम पण कदी बनतुं नथी. अरिहंत भगवान
धर्मतीर्थना प्रवर्तक छे. भगवाननी वाणी झीलीने अनेक जीवो पोतानुं कल्याण साधे छे.
[लौकि जीवोने प्रभुत्व मानवाना कारणरूप बाह्यवैभव.]
जे लोकोत्तर धर्मात्मा छे तेवा जीवो तो केवळज्ञानादि गुणो वडे अरिहंत भगवानने ओळखीने पूज्य
माने छे. अने अन्य लौकिक जीवोने प्रभुत्व मानवाना कारणरूप अनेक अतिशय तथा समवसरण वगेरे
वैभवथी संयुक्तपणुं भगवानने छे. भगवान साधारण मनुष्यनी माफक जमीन उपर विचरता नथी, परंतु
तेमनो देह पांच हजार धनुष ऊंचे आकाशमां विचरे छे. अने आठ भूमिकावाळुं दैवी समवसरण होय छे, ते
समवसरणमां आवे त्यां आंधळानी आंखो खूली जाय ने लंगडा चालता थाय; भगवाननी धर्मसभामां वाघ
अने हरण, सिंह अने ससलुं वगेरे जीवो एक साथे बेसे छे छतां तेमने वेरभाव थतो नथी. समवसरणमां चार
बाजु चार मानस्तंभ होय छे, तेने जोतां ज मानीनुं मान छूटी जाय छे. आ रीते भगवानने समवसरणादि
बाह्यवैभव पण अलौकिक होय छे. लौकिक जीवो ते बाह्यवैभव वडे भगवाननी प्रभुता माने छे.
धर्मात्मा तो आत्माश्रित केवळज्ञानादि गुणो वडे भगवाननी प्रभुताने जाणे छे. अने लौकिकजनो
देहाश्रित गुणो वडे के संयोगना वैभव वडे भगवाननुं महानपणुं माने छे.
श्री समन्तभद्रस्वामी भगवाननी स्तुति करतां कहे छे के हे नाथ! आ बहारना ठाठ वडे अमे आपनुं
पूज्यपणुं नथी मानता, पण अंतरमां आपनी सर्वज्ञताने ओळखीने अमे आपने पूज्य मानीए छीए.
भगवानना यथार्थ द्रव्य–गुण–पर्यायने ओळखे तो आत्मानुं भान अने सम्यग्दर्शन. थाय अने ए रीते
भगवानने ओळखीने नमस्कार करे तो ज साचा नमस्कार छे.
[गणधरादिक उत्तम जीवो द्वारा पूज्यपणुं.]
वळी श्री गणधरदेव, ईन्द्र अने चक्रवर्ती वगेरे उत्तम जीवो पण पोताना हितने अर्थे अरिहंत भगवाननुं
सेवन करे छे. तनथी–मनथी–वचनथी सर्व प्रकारे विनयपूर्वक गणधरादिक उत्तम जीवो भगवाननुं सेवन करे छे.
ईन्द्र वगेरे जीवो सम्यग्द्रष्टि छे, तेथी तेमने उत्तम जीवो कह्या छे; एवा उत्तम जीवो पण अरिहंत भगवानने
पोताना हितने अर्थे आदरपूर्वक सेवे छे.
[ओळखाणपूर्वक नमस्कार.]
आ रीते अरिहंत भगवान सर्व प्रकारे पूजवा योग्य छे; आवा श्री अरिहंतदेवने अमारा नमस्कार हो!
आ रीते भगवानना केवळज्ञानादि गुणो वडे तेमनुं स्वरूप ओळखीने अरिहंत भगवानने प्रथम नमस्कार कर्या.
हवे सिद्ध परमेष्ठीनुं स्वरूप ध्यावीए छीए.
[२]
श्री सिद्ध परमेष्ठीनुं स्वरूप
• जे गृहस्थ अवस्था तजी, मुनिधर्मसाधन वडे चार घातिकर्मोनो नाश थतां अनंत चतुष्टय स्वभाव
प्रगट करी, केटलोक काळ वीत्ये चार अघातिकर्मोनी पण भस्म थतां परमौदारिक शरीरने पण छोडी ऊर्ध्वगमन
स्वभावथी लोकना अग्रभागमां जई बिराजमान थया छे.
• त्यां जेमने संपूर्ण परद्रव्योनो संबंध छूटवाथी मुक्त अवस्थानी सिद्धि थई छे.
• चरम (अंतिम) शरीरथी किंचित् न्यून पुरुषाकारवत् जेमना आत्मप्रदेशोनो आकार अवस्थित थयो छे.
• प्रतिपक्षी कर्मोनो नाश थवाथी समस्त ज्ञानदर्शनादि आत्मिक गुणो जेमने संपूर्णपणे स्वभावने प्राप्त
थया छे.
• नोकर्मोनो संबंध दूर थवाथी जेमने समस्त अमूर्तत्त्वादिक आत्मिक धर्मो प्रगट थया छे,