: ૧૩૪ : આત્મધર્મ–૧૩૭ : ફાગણ : ૨૦૧૧ :
जाननें में आता हुआ उस काल प्रयोजनवान है। × × × [,, ,, समयसार पृ. २६ गा. १२ टीका]
शुद्धनय का विषय जो साक्षात् शुद्ध आत्मा है × × × [,, ,, समयसार पृ. २७ गा. १२ भावार्थ]
निश्चय और व्यवहार–इन दो नयों के विषय के भेद से परस्पर विरोध है। × × ×
दो नयों के विषय का विरोध है, जैसे कि–जो सत्रूप होता है वह असत्रूप नहीं होता, × × × इत्यादि नयों के
विषय में विरोध है। × × × [,, ,, समयसार पृ. २८ कलश ४ अर्थ व भावार्थ]
× × × उन जीवादि तत्त्वों को शुद्धनय के द्वारा जानने से सम्यक्त्व होता है × × × [,, ,, समयसार पृ. २८]
यह आत्मा शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है–शुद्धनय से ज्ञायकमात्र एकाकार दिखलाया गया है × × ×
शुद्धनय का विषयभूत आत्मा पूर्ण ज्ञानघन है × × × । [,, ,, समयसार पृ. २६–३० कलश ६ भावार्थ]
यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि जो नय है सो श्रुतप्रमाण का अंश है, इसलिये शुद्धनय भी श्रुतप्रमाण का ही
अंश हुआ। श्रुतप्रमाण परोक्षप्रमाण है, क्योंकि वस्तु को सर्वज्ञ के आगम के वचन से जाना है, इसलिये यह शुद्धनय सर्व द्रव्यों
से भिन्न... असाधारण चैतन्यधर्म को परोक्ष दिखाता है। यह व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगम को प्रमाण करके शुद्ध नयसे
दिखाये गये पूर्ण आत्मा का श्रद्धान करे सो वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। × × × इसलिये आचार्य कहते हैं कि इन नवतत्त्वों की
संतति (परिपाटी) को छोड़कर शुद्धनय का विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो; × × ×
[समयसार पृ. ३० कलश ६ का भावार्थ]
इस प्रकार ही शुद्धनय से जानना सो सम्यक्त्व है × × ×
यह नवतत्त्व भूतार्थनय से जाने हुवे सम्यग्दर्शन ही हैं।... भूतार्थनय से एकत्व प्राप्त करके, शुद्धनयरूप से स्थापित
आत्मा की अनुभूति...प्राप्त होती है। (शुद्धनय से नवतत्त्वों को जानने से आत्मा की अनुभूति होती है...)
[,, ,, समयसार पृ. ३१ गा. १३]
नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है। इस प्रकार यह एकत्वरूप से प्रकाशित होता हुआ
शुद्धनयरूप से अनुभव किया जाता है। [,, ,, समयसार पृ. ३२ गा. १३]
इन नवतत्त्वों में, शुद्धनय से देखा जाये तो जीव ही एक चैतन्य–चमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रगट हो रहा है। × × ×
शुद्धनय से जीव पुद्गल का निजस्वरूप भिन्न भिन्न देखा जाये....। इसलिये शुद्धनय से जीव को जानने से ही सम्यग्दर्शन की
प्राप्ति हो सकती है। जब तक भिन्न भिन्न नव पदार्थों को जाने और शुद्धनय से आत्मा न जाने तब तक पर्यायबुद्धि है।
[,, ,, समयसार पृ. ३२–३३ गा. १३ भावार्थ]
× × × आत्मज्योति शुद्धनय से बाहर निकालकर प्रगट की गई है... [,, ,, समयसार पृ. ३३ कलश ८]
यह आत्मा सर्व अवस्थाओं में विविधरूप से दिखाई देता था, उसे शुद्धनयने एक चैतन्यचमत्कारमात्र दिखाया है ×
× × [,, ,, समयसार पृ. ३३ कलश ८ भावार्थ]
नय दो प्रकार के हैं–द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ द्रव्य–पर्यायस्वरूप वस्तु में द्रव्य का मुख्यता से अनुभव
कराये सो द्रव्यार्थिकनय है और पर्याय का मुख्यता से अनुभव कराये सो पर्यायार्थिक नय है। [,, ,, समयसार पृ. ३४]
वे प्रमाण नय निक्षेप ज्ञानके ही विशेष हैं। प्रथम अवस्था में प्रमाणादिसे यथार्थ वस्तु को जानकर ज्ञान–श्रद्धान की
सिद्धि करना। [,, ,, समयसार पृ. ३५]
आचार्य शुद्धनय का अनुभव करके कहते हैं कि–इन समस्त भेदों को गौण करनेवाला जो शुद्धनय का विषयभूत
चैतन्यचमत्कार मात्र तेजःपुंज आत्मा है × × × [,, ,, समयसार पृ. ३५ कलश ६]
आगे शुद्धनय का उदय होता है–
शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है। वह आत्मस्वभाव को परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा
परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने विभाव–ऐसे परभावों से भिन्न प्रगट करता है। और वह आत्मस्वभाव संपूर्णरूप से पूर्ण
है...ऐसा प्रगट करता है।... ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है। [,, ,, समयसार पृ. ३६ कलश १०]
परमार्थनय अभेद ही है, इसलिये इस द्रष्टि से देखने पर भेद नहीं दिखाई देता; इस नय की द्रष्टि में पुरुष
चैतन्यमात्र ही दिखाई देता है। [,, ,, समयसार पृ. १०५]
निश्चयनय द्रव्याश्रित होने से, केवल एक जीव के स्वाभाविकभाव का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ...।
[,, ,, समयसार पृ. १०६ गा. ५६ टीका]
शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की द्रष्टि में चैतन्य अभेद है × × ×। [,, ,, समयसार पृ. १२०]
शुद्धनय से ज्ञानीने आत्मा का ऐसा निश्चय किया है कि– ‘मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, परद्रव्य के प्रति ममता रहित हूँ,
ज्ञानदर्शन