: ફાગણ : ૨૦૧૧ : આત્મધર્મ–૧૩૭ : ૧૩૫ :
से पूर्ण वस्तु हूँ।’ [,, ,, समयसार पृ. १३४ गा. ७३ भावार्थ]
आत्मा के अनादि से परद्रव्य के कर्ताकर्मपने का अज्ञान है, यदि वह परमार्थनय के ग्रहण से एक बार भी विलय को
प्राप्त हो जाये तो फिर न आये,–ऐसा कहते हैं–
तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत्
तत्किं ज्ञानघनस्य बंधनमहो भूयोभवेदात्मनः।।५५।।
[अर्थ] × × × आचार्य कहते हैं कि अहो! परमार्थनय का अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनय का ग्रहण करने से यदि वह
(अज्ञान अंधकार) एकबार भी नाश को प्राप्त हो तो ज्ञानघन आत्मा को पुनःबंधन कैसे हो सकता है?
परमार्थनय के ग्रहण से दर्शनमोह का नाश होकर, एकबार यथार्थज्ञान होकर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न हो तो पुनः
मिथ्यात्व न आये। [,, ,, समयसार पृ. १५५ कलश ५५]
जैसे केवली भगवान, विश्वके साक्षीपन के कारण, श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार निश्चय नयपक्षो के स्वरूप को
ही मात्र जानते हैं परंतु...श्रुतज्ञान की भूमिका की अतिक्रान्तता के द्वारा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुवे होने से किसी भी
नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते, इसीप्रकार (श्रुतज्ञानी आत्मा), क्षयोपशम से जो उत्पन्न होते हैं, ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्प
उत्पन्न होनेपर भी पर के ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षों के
स्वरूप को ही केवल जानते हैं, परंतु...श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्प तथा बर्हिजल्यरूप विकल्पों की भूमिका की
अतिक्रांतता के द्वारा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुवे होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह आत्मा वास्तव
में समस्त विकल्पों से पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार है।
[,, ,, समयसार पृ. २१६ गा. १४३ टीका]
ज्ञानी को बंध नहीं होता, यह शुद्धनय का महात्म्य है, इसलिये शुद्धनय का महिमादर्शक काव्य कहते हैं–
अध्यास्य शुद्धनयमुद्धत बोधचिह्न–
मैकाव्यमेव कलयंति सदैव ये ते।
रागादिमुक्तमनसः सततं भवंतः
पश्यंति बंधविधुरं समयस्य सारम्।।१२०।।
[अर्थ] उद्धतज्ञान (जो कि किसी के दबाये नहीं दब सकता ऐसा उन्नतज्ञान) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्धनय में
रहकर अर्थात् शुद्धनय का आश्रय लेकर जो सदा ही एकाग्रता का अभ्यास करते हैं वे निरन्तर रागादि से रहित चित्तवाले
वर्तते हुए बन्धरहित समय के सार को (अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को) देखते हैं–अनुभव करते हैं।
[भावार्थ] यहाँ शुद्धनय के द्वारा एकाग्रता का अभ्यास करने को कहा है। ‘मैं केवलज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्ध हूँ’ ऐसा जो
आत्मद्रव्य का परिणमन वह शुद्धनय। ऐसे परिणमन के कारण वृति ज्ञानकी ओर उन्मुख होती रहे और स्थिरता बढ़ती जाये
सो एकाग्रता का अभ्यास।
शुद्धनय श्रुतज्ञान का अंश है और श्रुतज्ञान तो परोक्ष है इसलिये इस अपेक्षा से शुद्धनय के द्वारा होनेवाला शुद्धस्वरूप
का अनुभव भी परोक्ष है। और वह अनुभव एकदेश शुद्ध है इस अपेक्षा से उसे व्यवहार से प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। साक्षात्
शुद्धनय तो केवलज्ञान होने पर होता है। [,, ,, हिंदी समयसार पृ. २७० कलश १२०]
अब यह कहते हैं कि जो शुद्धनय से च्युत होते हैं वे कर्म बांधते हैं–
प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु
रागादियोगमुपयांति विमुक्तबोधाः।
ते कर्मबंधमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध–
द्रव्यास्त्रवैः कृतविचित्र विकल्पजालम्।।
[अर्थ] जगत में जो शुद्धनय से च्युत होकर पुनः रागादि के संबन्ध को प्राप्त होते हैं ऐसे जीव, जिन्होंने ज्ञान को
छोड़ा है ऐसे होते हुए, पूर्वबद्ध द्रव्यास्रव के द्वारा कर्मबन्ध को धारण करते हैं। × × ×
[भावार्थ] शुद्धनय से च्युत होना अर्थात् ‘मैं शुद्ध हूँ’ ऐसे परिणमन से छूटकर अशुद्धरूप परिणमित होना, अर्थात्
मिथ्याद्रष्टि हो जाना। × × × यहाँ शुद्धनय से च्युत होने का अर्थ शुद्धता की प्रतीति से (सम्यक्त्व से) च्युत होना समझना
चाहिये। यहाँ शुद्धनय से च्युत होना अर्थात् शुद्ध उपयोग से च्युत होना ऐसा अर्थ मुख्य नहीं है। × × ×
यदि उपयोग की अपेक्षा ली जाये तो इसप्रकार अर्थ घटित होता है–× × × सम्यग्द्रष्टिज्ञानी को शुद्धनय से न छूटने का
अर्थात् शुद्धोपयोग में लीन रहने का उपदेश है। केवलज्ञान होनेपर साक्षात शुद्धनय होता है।
[,, ,, समयसार पृ. २७१ कलश १२१]
अब इस सर्व कथन का तात्पर्यरूप श्लोक कहते हैं–
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि।
नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्त्यागाब्दंध एव हि।।१२२।।
[अर्थ] यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है, क्योंकि उसके अत्याग से (कर्म का) बन्ध नहीं होता और