: ૧૩૬ : આત્મધર્મ–૧૩૭ : ફાગણ : ૨૦૧૧ :
उसके त्याग से बन्ध ही होता है। [,, ,, समयसार पृ. २७३]
‘शुद्धनय त्याग करने योग्य नहीं है’ इस अर्थ को द्रढ़ करनेवाला काव्य पुनः कहते हैं–
धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिं।
त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंकषः कर्मणाम्।।
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहिः
पूर्णं ज्ञानघनौधमेकमचलं पश्यंति शांतं महः।।१२३।।
[अर्थ] धीर और उदार जिसकी महिमा है ऐसे अनादिनिधन ज्ञानमें स्थिरता को बांधता हुआ शुद्धनय–जो कि कर्मों
का समूल नाश करनेवाला है–पवित्र धर्मात्मा पुरुषों के द्वारा कभी भी छोड़ने योग्य नहीं है। शुद्धनय में स्थित वे पुरुष, बाहर
निकलती हुई अपनी ज्ञानकिरणों के समूह को अल्पकाल में ही समेटकर, पूर्णज्ञानघन के पुंजरूप, एक, अचल, शांत तेज
को–तेजःपुंज को देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं।
[भावार्थ] शुद्धनय ज्ञान के समस्त विशेषों को गौण करके तथा परिनिमित्त से होनेवाले समस्त भावों को गौण
करके, आत्मा को शुद्ध, नित्य, अभेदरूप एक चैतन्यमात्र ग्रहण करता है, और इसलिये परिणति शुद्धनयके विषयरूप
चैतन्यमात्र शुद्धआत्मा में एकाग्र–स्थिर होती जाती है। इस प्रकार शुद्धनय का आश्रय लेनेवाले जीव बाहर निकलती हुई ज्ञान
की विशेष व्यक्तताओं को अल्पकाल में ही समेटकर, शुद्धनय में (आत्मा की शुद्धता के अनुभव में) निर्विकल्पतया स्थिर
होनेपर अपने आत्मा को सर्व कर्मों से भिन्न, केवलज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतरागज्ञानमूर्ति–स्वरूप देखते हैं और
शुक्लध्यान में प्रवृत्ति करके अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रगट करते है; शुद्धनय का ऐसा माहात्म्य है। इसलिये श्री गुरुओं का यह
उपदेश है कि जबतक शुद्धनय के अवलम्बन से केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक सम्यक्द्रष्टि जीवों को शुद्धनय का त्याग नहीं
करना चाहिये। [,, ,, समयसार पृ. २७३–४ कलश १२३]
आत्माश्रित निश्चयनय है, पराश्रित व्यवहारनय है। वहाँ, पूर्वोक्त प्रकार से पराश्रित समस्त अध्यवसान बन्ध का
कारण होने से मुमुक्षुओं को उसका निषेध करते हुए ऐसे निश्चयनय के द्वारा वास्तव में व्यवहारनय का ही निषेध कराया है,
क्योंकि व्यवहारनय के भी पराश्रितता समान ही है। और इसप्रकार यह व्यवहारनय निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि
आत्माश्रित निश्चयनय का आश्रय करनेवाले ही मुक्त होते हैं, और पराश्रित व्यवहारनय का आश्रय तो एकाततः मुक्त नहीं
होनेवाला अभव्य भी करता है।
[भावार्थ] × × × जो एक अपना स्वाभाविकभाव है वही निश्चयनय का विषय है इसलिये निश्चयनय आत्माश्रित है।
अध्यवसान भी व्यवहारनय का ही विषय है इसलिये अध्यवसान का त्याग व्यवहारनय का ही त्याग है।
[,, ,, समयसार पृ. ३८६ गा. २७२ टीका व भावार्थ]
× × × ऐसा होने से निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय का निषेध योग्य ही है।
[,, ,, समयसार पृ. ३६३ गा. २७५ टीका]
शुद्धनय का विषय जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह कर्तृत्व–भोक्तृत्व के भावों से रहित है × × ×।
[,, ,, समयसार पृ. ४३७–८ कलश १६३ भावार्थ]
केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही हैं और श्रुतज्ञानी भी शुद्धनय के अवलम्बन से आत्मा को ऐसा ही अनुभव
करते हैं; प्रत्यक्ष और परोक्ष का ही भेद है। [,, ,, समयसार पृ. ४५० गा. ३२० भावार्थ]
शुद्धनय का विषय आत्मा अनंत शक्तिवान, चैतन्यचमत्कारमात्र, नित्य, अभेद, एक है। वह अपने ही अपराध से
राग–द्वेषरूप परिणमित होता है। [,, ,, समयसार पृ. ५०५]
यहाँ तक (साधकदशा में) पूर्णज्ञान का शुद्धनय के आश्रय से परोक्ष देखना है। और जब केवलज्ञान उत्पन्न होता
है तब साक्षात् देखना है सो यह तीसरे प्रकार का देखना है। [,, ,, समयसार पृ. ५४८ गा. ३६० से ४०४ के भावार्थ में]
[टीका] जो वास्तव में “मैं श्रमण हूँ, श्रमणोपासक (श्रावक) हूँ” इसप्रकार द्रव्यलिंग में ममत्वभाव के द्वारा
मिथ्याअहंकार करते हैं, वे अनादिरूढ़ (अनादिकाल से समागत) व्यवहार में मूढ़ मोही होते हुये, प्रौढ़ विवेकवाले निश्चय
(निश्चयनय) पर आरूढ़ न होते हुए, परमार्थ सत्य भगवान समयसार को नहीं देखते–अनुभव नहीं करते।
[भावार्थ] × × × जिससे भेदज्ञान होता है ऐसे निश्चय को वे नहीं जानते। × × ×
[,, ,, समयसार पृ. ५५८ गा. ४१३ टीका]
[भावार्थ] व्यवहारनय का विषय तो भेदरूप अशुद्धद्रव्य है, इसलिए वह परमार्थ नहीं है; निश्चयनय का विषय
अभेदरूप शुद्धद्रव्य है, इसलिये वही परमार्थ है। × × × [,, ,, समयसार पृ. ५६० गा. ४१४ भावार्थ]
अनेक प्रकार की निज शक्तियों का समुदायमय यह आत्मा नयों की द्रष्टि से खंडखंडरूप किये जाने पर तत्काल
नाश को प्राप्त होता है। × × ×
[भावार्थ] आत्मा में अनेक शक्तियाँ हैं, और एक एक शक्ति का ग्राहक एक एक नय है; इसलिये यदि नयों की एकान्त द्रष्टि
से देखा जाये तो आत्मा का खंडखंड होकर उसका नाश हो जाये। × × × यदि शुद्धनय से देखा जाये तो शुद्धचैतन्यमात्र भाव में