वगरनो निर्भ्रान्त ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ छे, माटे ज्ञान वडे अंतरना स्वरूपनी ओळखाण कर तो
अनादिनी भूल मटे ने अपूर्व शांति प्रगटे.
आ आंगळी ते शरीरनो अवयव छे, ते अवयव वडे आखा शरीरना स्पर्शनो ख्याल आवे छे,
पण लाकडुं वगेरे बीजी चीज वडे शरीरना स्पर्शनो ख्याल आवतो नथी केम के ते जुदी चीज छे.
तेम आत्मा अखंड चैतन्यशरीरी छे ने मति–श्रुत ज्ञान तेनो अवयव छे; ते मति–श्रुत ज्ञानरूप
अवयवने स्वसन्मुख करतां आखा आत्माना आनंदनो अनुभव थाय छे. आत्माना अंश द्वारा
आत्मानो अनुभव थाय छे, पण आत्माथी भिन्न एवी शरीर वगेरेनी क्रिया द्वारा आत्मानो
अनुभव थतो नथी, तेमज राग पण खरेखर चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे, तेना वडे पण आत्मानो
अनुभव थतो नथी. जेम आंगळी उपर मेलनां थर जाम्यां होय तो तेना वडे शरीरना स्पर्शनो
ख्याल नथी आवतो, तेम ज्ञानमां ‘राग ते हुं’ एवी रागादिनी रुचिरूप मेलनां थर जाम्यां होय
तो तेना वडे आत्मानो अनुभव थतो नथी. वर्तमानमां ज्ञाननो जे व्यक्त अंश छे ते मारा अखंड
ज्ञानस्वभावनो अंश छे, अने ते ज्ञान रागथी जुदुं छे,–एम रागथी भिन्नता जाणीने अंतरना
ज्ञानस्वभावमां ज्ञानने एकाग्र करतां ते ज्ञान द्वारा अखंड अत्मास्वभावनो अनुभव थाय छे;
पण जो रागादि साथे एकता मानीने अटकी जाय तो ते ज्ञान आत्मस्वभावनी सन्मुख वळतुं
नथी. ईंद्रियो के मननां अवलंबनमां जे ज्ञान अटक्युं तेना वडे पण आत्मा जणातो नथी तेथी ते
अचिंत्य छे ईंद्रियो तेमज मनना अवलंबनथी पार एवा अतीन्द्रियज्ञान वडे आत्मा जणाय छे.
आवा ज्ञान सिवाय देहादिनी कोई क्रियाथी के व्रत–तप–त्यागना शुभरागथी आत्मा जणाय तेवो
नथी, अने आत्माने जाण्या विना कदी धर्म थतो नथी.
शुभभावथी जुदी ज चीज छे. राग थयो माटे तेना अवलंबने धर्म टक्यो–एम पण नथी, धर्म तो
आत्मस्वभावना अवलंबने ज टक्यो छे. आत्माना स्वभाव सिवाय बीजुं कोई धर्मनुं अवलंबन
नथी. भाई! मारुंज्ञानानंद स्वरूप रागथी पार छे, राग मारा स्वरूपमां अंशमात्र पण मददगार
नथी–एम एक वार लक्षमां तो ले, तारा चैतन्यतत्त्वने रागथी जुदापणे एकवार तो जो, रागथी
विमुख थईने एकवार स्वभावसन्मुख था, तो तने तारा अचिंत्य महिमानुं भान थाय. स्वसन्मुख
ज्ञान वडे आत्मानुं भान थाय छे, ए सिवाय बीजा कोई उपायथी आत्मा लक्षमां आवे तेवो नथी
ने परिभ्रमण अटके तेम नथी. जीवे अनंतकाळथी बहारमां जोयुं छे पण अंर्त–स्वभावने लक्षमां
लईने तेनुं अवलोकन कदी कर्युं नथी. हुं तो चैतन्यस्वभाव छुं, जगतथी हुं जुदो छुं, परनो एक
अंश पण मारो नथी–एवुं अंर्त–स्वभावनुं भान भूलीने, बाह्यद्रष्टिथी अनादिथी परने पोतानुं
माने छे, परंतु एक रजकण पण तेनो थयो नथी; परने माटे जेटलो प्रयत्न कर्यो ते बधो व्यर्थ छे.
जो ज्ञानने अंतर्मुख करीने पोताना आत्मस्वभावने जाणवानो प्रयत्न करे तो