Atmadharma magazine - Ank 138
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: १६२ : आत्मधर्म २४८१: चैत्र :
अभाव स्वयमेव थई जाय छे, तेने टाळवानो यत्न करवो पडतो नथी, आ अपेक्षाए आत्मानी सिद्धि
अयत्नसाध्य कहेवाय छे. दैवनयमां एम नथी के कर्म मार्ग आपे त्यारे मुक्ति थाय ने तेमां जीवनो पुरुषार्थ न
चाले! जीव पोताना स्वभावनो पुरुषार्थ करे त्यां कर्म एनी मेळे टळी जाय छे, तेमां जुदो यत्न करवो पडतो
नथी माटे तेनुं नाम दैव छे.
कोईने तो पुरुषार्थथी मुक्ति थाय अने कोईने दैवथी मुक्ति थाय–एम जुदा जुदा आत्मानी आ वात
नथी, एकेक आत्मामां ज ए बंने धर्मो रहेला छे. दैवनय वखते बीजा नयोनी विवक्षानुं ज्ञान पण साथे ज होवुं
जोईए, तो ज दैवनयनुं ज्ञान साचुं कहेवाय. पुरुषार्थ वडे मुक्ति थई–एम न कहेतां, कर्मो टळ्‌यां ने मुक्ति थई
अथवा दैवथी मुक्ति थई–एम कहेवुं ते दैववाद छे, परंतु तेमां पण चैतन्यस्वभावना पुरुषार्थनो तो स्वीकार
भेगो छे ज. यत्नसाध्य ते स्व अपेक्षाए, ने अयत्नसाध्य ते पर अपेक्षाए; पोतामां पुरुषार्थ छे ने परने माटे
पुरुषार्थ नथी. स्वना पुरुषार्थनी साथे कर्मना अभावरूप दैव पण छे. आ दैवनयवाळाने पण आत्मसन्मुखता
छे, तेने कांई पुरुषार्थनो निषेध नथी.
ज्यां जीवने स्वभावनो पुरुषार्थ होय त्यां दैव पण एवुं ज होय के जड कर्मो एनी मेळे टळी जाय छे,
कर्मने टाळवा माटे यत्न करवो नथी पडतो. त्यां, कर्म टळवाथी आत्मानी मुक्ति थाय छे–एवुं दैवनयनुं कथन छे.
–पण कर्म टळे क्यारे? कर्म सामे जोवाथी कर्म न टळे, पण स्वभावसन्मुख एकाग्रतानो प्रयत्न करतां कर्मो स्वयं
टळी जाय छे ने मुक्ति थई जाय छे. पुरुषार्थनी विवक्षा गौण करीने दैवनयमां कर्मनी विवक्षाथी कथन कर्युं छे.
वस्तुमां तो पुरुषार्थ वगेरे अनंतधर्मो एक साथे रहेला छे, तेमां एक मुख्य ने बीजो गौण एवा प्रकार नथी,
अभेद वस्तुमां बधा धर्मो एक साथे छे. पण छद्मस्थने श्रुतज्ञानमां नय पडे छे, ते नयमां मुख्य–गौण होय छे.
एक नय छे ते बीजा नयोना विषयभूत धर्मोने गौण करे छे–पण तेनो सर्वथा निषेध नथी करतो. जो बीजा
धर्मोनो सर्वथा निषेध करे तो अनेकान्तमय वस्तु स्वरूप ज साबित न थाय एटले के वस्तुनुं प्रमाणज्ञान ज न
थाय. ने प्रमाण विना नय पण क्यांथी होय? न ज होय, केम के नय ते श्रुतज्ञान प्रमाणनो अंश छे.
दैवनयथी अयत्नसाध्य छे–एम कह्युं ते धर्म पण आत्मानो छे, एटले दैवनयवाळो पण आत्मा तरफ
वळीने तेना धर्मने जाणे छे, आ रीते दैवनयमां पण द्रव्य तरफनो पुरुषार्थ आवी ज जाय छे. दैवनय जे धर्मने
लक्षमां ले छे ते धर्म परनो नथी पण आत्मानो छे, माटे आत्मानी सन्मुख द्रष्टि करे तेने ज तेना धर्मोनुं यथार्थ
ज्ञान थाय छे. कर्म सामे जोईने दैवनयनी प्रतीत नथी थती पण आत्मानी सामे जोईने तेनी प्रतीत थाय छे.
आत्मद्रव्यमां ज मुक्ति थवानो धर्म छे, ते धर्म कांई कर्ममांथी नथी आवतो, पण आत्मानो ज ते धर्म कांई
कर्ममांथी नथी आवतो, पण आत्मानो ज ते धर्म छे. आत्माना स्वभाव उपर द्रष्टि थई त्यां पर्याय अने कर्म
उपरनी द्रष्टि गई, त्यारे आवा धर्मोनुं भान थयुं. आमां पोतानो महिमा आववो जोईए के अहो! आ तो बधुं
मारा धर्मोनुं ज वर्णन छे, आमां परनो महिमा क्यां य नथी पण मारा चैतन्यस्वभावनो ज महिमा छे, घणा
नयोनी विधविध विवक्षाथी वर्णन कर्युं ते तो मारा स्वभावनी विशाळता छे. आम आत्मस्वभावनो महिमा
लावीने समजवुं जोईए, पण कंटाळो न लाववो जोईए.
‘आठ कर्मोनो अभाव थतां आत्मानी मुक्ति थाय छे’–एम कहेतां कर्मनी सामे जोवानुं नथी पण
आत्मानी सामे जोवानुं छे केमके मुक्ति आत्मानी थाय छे, आत्माना ज स्वभावमांथी मुक्ति आवे छे. आ
पुरुषार्थ, दैव वगेरे जेटला धर्मो वर्णव्या तेमां पर उपर के विकार उपर वजन देवानुं नथी केमके आ धर्मो परना
आधारे के विकारना आधारे नथी; तेमज एकेक धर्म जुदो रहेतो नथी माटे ते एकेक धर्म उपर पण वजन देवानुं
नथी; अखंड आत्माना ज आश्रये आ बधा धर्मो एक साथे रहेला छे; धर्म कोनो? के धर्मीनो; धर्मी एटले आखो
आत्मा; ते अखंड आत्मा शुद्धचैतन्यमूर्ति छे तेना उपर ज वजन देवानुं छे. वजन देवुं एटले शुं? के श्रद्धा–ज्ञाननुं
जोर ते अखंड स्वभाव तरफ वाळीने तेमां एकाग्र थवुं,–ते शुद्ध आत्मानी प्राप्तिनो उपाय छे. अत्यारे ‘आत्मा
कोण छे’ ते आचार्य प्रभु समजावे छे, अने आत्मानी प्राप्तिना उपायनुं वर्णन हवे पछी कहेशे.
अहीं ‘यत्नसाध्य’ अने ‘अयत्नसाध्य’ एवा बे धर्मो कह्या ते बंने धर्मो दरेक आत्मामां एक साथे छे.