: चैत्र : २४८१ आत्मधर्म : १६५ :
[फगण वद दसमन रज प्रवचनमथ. (नयमसर ग. ९१)
चिदानंदतत्त्वनुं भान करीने पोताना आत्मामां जेणे ज्ञानदीवडा प्रगटाव्या ने अज्ञान–
अंधकारनो नाश कर्यो ते ज “धर्मदीवाकार” छे. .....ते जीव शुद्ध रत्नत्रयना परमपुरुषार्थमां
प्रवीण छे ने तेने ज अनादिना मिथ्यात्वादि भावोनुं खरुं प्रतिक्रमण होय छे.
आ प्रतिक्रमणनो अधिकार छे.
सौथी पहेलुं प्रपिक्रमण मिथ्यात्वनुं थाय छे. आत्मानुं भान करीने अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते ज
अनादिना मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण छे. आवा सम्यग्दर्शन वगर साचुं प्रतिक्रमण के धर्म न होय.
भवचक्रनो नाश करनारी अपूर्व भावना
जीवे मिथ्यात्वादि भावो पूर्वे अनादि काळथी भाव्या छे, पण चिदानंदस्वभावनो आश्रय करीने
सम्यक्त्वादि भावोने पूर्वे कदी भाव्या नथी. अति आसन्नभव्य मुमुक्षु जीव ते मिथ्यात्वादि भावोने छोडीने,
पोताना परमात्मतत्वना आश्रये सम्यग्दर्शनादि भावो रूपे परिणमे छे, ए ज तेनुं प्रतिक्रमण छे.
चिदानंदतत्त्वना आश्रये सम्यक्त्वादिनी भावना छे ते भवभ्रमणनो नाश करनारी छे. आवी भावनावाळो जीव
अति आसन्नभव्य छे, एटले के अल्पकाळमां ते मुक्ति पामे छे.
आनंद लक्षणवाळो आत्मा
अहीं मुनिराज कहे छे के भगवान आत्मा सदाय आनंद–लक्षणवाळो छे आनंद आत्मानुं लक्षण छे; कई
रीते? के ज्ञान अंतर्मुख थईने आनंदने पकडे छे–आनंदमां एकाग्र थाय छे; अंतर्मुख थईने आत्माने पकडतां
अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय छे, तेथी आनंदने ज आत्मानुं लक्षण कह्युं. शास्त्रोमां ज्ञानने आत्मानुं लक्षण
कह्युं छे पण ज्यां ज्ञान अंतर्मुख थईने लक्ष्यने पकडे त्यां ते ज्ञान साथे अतीन्द्रिय–आनंद न होय एम बने
नहि. माटे ज्ञाननी जेम आनंद ते पण आत्मानुं लक्षण छे.
भगवान कारणपरमात्मा तो नित्य आनंद लक्षणवाळो छे–सदाय अतीन्द्रिय आनंदनी मूर्ति छे, ने
अपूर्व पुरुषार्थ वडे तेमां एकाग्र थयो त्यां पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंदनुं व्यक्त वेदन थाय छे. आवा
आनंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे, तेनुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे, ने ते आनंदमां लीनता ते
सम्यक्चारित्र छे.
परमपुरुषार्थ परायण जीवनुं प्रतिक्रमण
भगवान परमात्मसुखनो अभिलाषी एवो ‘परमपुरुषार्थपरायण भव्य जीव’ चिदानंद स्वभावना
आश्रये निश्चय रत्नत्रयने भावे छे. भगवान कारणपरमात्माना आश्रये थता श्रद्धा–ज्ञान–रमणता स्वरूप
निश्चय रत्नत्रय छे.