: १६६ : आत्मधर्म २४८१: चैत्र :
आवा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप आत्माने जे भावे छे तेने अनादिना मिथ्यात्वादि भावोनुं प्रतिक्रमण होवाथी ते
जीव प्रतिक्रमणस्वरूप छे. परम पुरुषार्थमां परायण धर्मात्माने आवुं प्रतिक्रमण होय छे.
आनंदमूर्ति भगवान कारणपरमात्मानी भावना वडे जे जीव सम्यक्त्वादि प्रगट करीने मिथ्यात्वादि
भावोने छोडे छे ते ज परमपुरुषार्थमां परायण छे. जे जीव रागमां लीन छे–व्यवहारमां लीन छे ते जीव
परमपुरुषार्थमां परायण नथी, पण ऊंधा पुरुषार्थवाळो छे; तेने प्रतिक्रमण होतुं नथी. जेणे चिदानंद स्वभावमां
एकाग्रता करीने तेनुं अवलंबन लीधुं, ने रागनुं अवलंबन छोड्युं, ते जीव शुद्धरत्नत्रयना परमपुरुषार्थमां
प्रवीण छे, ने तेने ज अनादिना मिथ्यात्वादि भावोनुं खरुं प्रतिक्रमण होय छे.
अति आसन्नभव्यजीवने परमपुरुषार्थमां प्रवीणताथी अंतरमां एकाग्रता वडे आवुं सम्यग्दर्शनादिरूप
परिणमन थई जाय छे; अंर्तस्वभावनी रुचिना जोरे अंतर्मुखी थईने आत्मा पोते सम्यक् रत्नत्रयरूपे
परिणमी जाय छे,–त्यां याद राखवुं नथी पडतुं–गोखवुं नथी पडतुं,–पण अंतरनो आश्रय वर्ते छे त्यां
सम्यग्दर्शनादिरूपे सहज परिणमन वर्ते छे.
“धर्मदीवाकर”
ज्ञानने अंतर्मुख करीने आत्मामां जेणे प्रकाश कर्यो–ज्ञान दीपक वडे आत्माने प्रकाशित कर्यो ते खरेखर
‘धर्मदीवाकर’ छे, जेने हजी ज्ञानप्रकाशी आत्मानुं भान नथी, आत्मामां ज्ञानदीपकनो प्रकाश प्रगट कर्यो नथी ने
अज्ञाननुं अंधारूं टाळ्युं नथी ते ‘धर्मदीवाकर’ केवो? पैसा खरचे ने लोको भेगा थईने ‘धर्मदीवाकर’नुं बिरूद
आपी द्ये तेथी कांई आत्मामां धर्मना दीवा थता नथी. चिदानंदतत्वनुं भान करीने पोताना आत्मामां जेणे
ज्ञानदीवडा प्रगटाव्या ने अज्ञान–अंधकारनो नाश कर्यो ते ज ‘धर्मदीवाकर’ छे.
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सर्वत्र अंतरंग कारणथी ज कार्यनी उत्पत्ति
“कुदो? पयडिविसेसादो। ण च सव्वाइं कज्जाइं बज्भ्क्तत्थमवे–क्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो
जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाइं दव्वाइं तिसु वि कालेसु कहिं पि अस्थि, जेसिं बलेण
सालिबीजस्स जवंकुरुप्पायण सत्ती होज्ज, अणवस्थापसंगादो। तम्हा कम्हि वि अंतरं गकारणादो चेव
कज्जुप्पत्ती होदि त्ति णिच्छओ कायव्वो।”
(हिंदी अर्थ) क्योंकि, प्रकृतिविशेष होनेसे इन सूत्रोक्त प्रकृतियों का यह स्थितिबन्ध होता है।
सभी कार्य एकान्त से बाह्य अर्थकी अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं।, अन्यथा शालिधान्य के बीज
से जौ के अंकुरकी भी उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होगा। किन्तु उस प्रकार के द्रव्य तीनों ही कालों में
किसी भी क्षेत्रमें नहीं हैं कि जिनके बलसे शालिधान्य के बीजसे जौ के अंकुर को उत्पन्न करने की
शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा। इसलिये कहीं पर भी अन्तरंग
कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा निश्चय करना चाहिए।
(–श्री षट्खंडागम पुस्तक ६ पृ. १६४)
दसमा गुणस्थानवर्ती जीवने लोभनो सूक्ष्म अंश अने योगनुं कंपन वर्ते छे, त्यां तेने मोह अने आयु
सिवायना छ कर्मोनी कुल सत्तर प्रकृतिओ (ज्ञानावरणनी प, दर्शनावरणनी ४, अंतरायनी प, सातावेदनीय १,
उच्चगोत्र १, यशकीर्ति १ ए प्रमाणे १७ प्रकृतिओ) बंधाय छे. तेमां ज्ञानावरण–दर्शनावरण ने अंतरायनी
स्थिति अंतःमुहूर्तनी ज होय छे, ज्यारे सातावेदनीयनी स्थिति १२ मुहूर्तनी तथा गोत्र अने नाम कर्मनी स्थिति
आठ मुहूर्तनी बंधाय छे; छए कर्मोनुं बंधन एक साथे थतुं होवा छतां आ प्रमाणे स्थितिमां फेर पडे छे.
स्थितिमां आवो फेर केम पडे छे एवो प्रश्न थतां आचार्यदेव उत्तर आपे छे के प्रकृति विशेष होवाथी,–एटले के ते
ते खास प्रकृतिनुं अंतरंग कारण ज तेवुं छे, अने ते अंतरंग कारणथी ज कार्यनी उत्पत्ति थाय छे.
आत्माने कषाय परिणाम थया तथा योगनुं कंपन थयुं, तेना निमित्ते, कर्म थवाने योग्य परमाणुओ कर्मरूपे