Atmadharma magazine - Ank 138
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४८१ आत्मधर्म : १५३ :
अचिंत्य चैतन्यस्वरूप
वैशाख सुद ११ना रोज राणपुरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन.
भगवान! अनादिथी तें शुभ–अशुभ भावो तो कर्यां छतां चैतन्यस्वरूप
तारा लक्षमां न आव्युं, तो ते शुभ–अशुभ भावो करतां तारा चैतन्यतत्त्वनी जात
कांईक जुदी छे–एम अंतरमां विचार करीने निर्णय कर, तो तने धर्म थाय अने
संसारनी रखडपटीनो अंत आवे.
अहो! अचिंत्य आत्मस्वभावना अनुभवमां एक आत्मा सिवाय बीजा
कोईनुं अवलंबन छे ज नहि, बहारनुं कोई साधन छे ज नहि. भाई, तारो
आत्मा तने तारा ज्ञानथी ज अनुभवमां आवे तेवो छे.
आत्मानुं वास्तविक स्वरूप शुं छे, के जेने जाण्या विना अनादि काळथी जीव संसारमां
परिभ्रमण करी रह्यो छे? अने जे स्वरूपने जाणवाथी ते परिभ्रमणनो अंत आवे? तेनुं आ वर्णन
छे. आत्माना परमार्थस्वरूपनुं वर्णन करतां पद्मनंदीपचीसीना निश्चयपंचाशत अधिकारमां कहे छे
के–

मनसोऽचिंत्यं वाचामगोचरम् यन्महस्तनोर्भिन्नम्।
स्वानुभवमात्र गम्यं चिद्रु पममूर्तमव्याद्वः।।
२।।
चैतन्यस्वरूपी तेज मनथी अचिंत्य छे, वचनथी अगोचर छे अने देहथी भिन्न छे, ते मात्र
स्वानुभवथी ज गम्य छे. आवुं अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप ज जीवोने शरणभूत छे, ते अमारी रक्षा
करो. चैतन्यस्वरूपी भगवान आत्मा देहथी भिन्न छे एटले देहनी कोई क्रिया वडे ते जणाय तेवो
नथी; वळी ते वाणीथी अगोचर छे एटले वाणी द्वारा ते जणाय–एम पण नथी. अने मनथी पण ते
अचिंत्य छे एटले मनना अवलंबने विकल्प थाय तेनाथी पण आत्मा अनुभवमां आवे तेवो नथी.
आ रीते देहथी जुदो, वाणीथी अगोचर ने मनथी पण अचिंत्य एवो चैतन्यस्वरूप आत्मा अंतरना
ज्ञानथी ज गम्य थाय तेवो छे–पोताना स्वसंवेदनज्ञानथी ते जणाय छे. आवा आत्मानी
ओळखाणनो प्रयत्न करवो ते धर्मनी शरूआतनो उपाय छे.
हुं परनुं काम आ प्रमाणे करी दउं–एम जीव मनमां चिंता करे, परंतु ते चिंताने लीधे बहारनुं
कार्य थतुं नथी, अने अंतरनुं चैतन्यतत्त्व पण तेना वडे पकडातुं नथी. बहारनुं कार्य थवुं के न थवुं
तेमां जीवनी चिंता निरर्थक छे,