नहि, बहारनुं कोई साधन छे ज नहि. भाई, तारो आत्मा तने तारा ज्ञानथी ज अनुभवमां आवे
तेवो छे. आखो आत्मा ज्ञानस्वभावथी भरेलो छे ने संयोगथी खाली छे. आवो आत्मा
स्वानुभवगम्य छे; देह – वाणी मनथी के रागथी अगम्य छे ने मात्र स्वानुभवथी गम्य छे. –आवा
आत्मानो प्रथम सत्समागमे बराबर निर्णय करवो जोईए.
थाय छे, पंचपरमेष्ठी भगवानना प्रतिमाजी बनावीने तेमनी स्थापना करवानो तेमज प्रतिष्ठा
महोत्सव वगेरेनो भाव पण आवे छे, ते भाव कांई अस्थाने नथी. ते भूमिकामां ते प्रकारनो भाव
आवे छे. धर्मात्माने भगवाननी पूजा–प्रतिष्ठा वगेरेनो भाव आवेज नहि–एम जो कोई तेनो
सर्वथा निषेध करे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने धर्मनी भूमिकानी खबर नथी; तेमज ते शुभभाव
आव्यो तेने ज धर्म मनावी दे अथवा तो तेनाथी पाप माने तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे, तेने
नवतत्त्वनुं भान नथी. धर्मीने पोतानी सर्वज्ञशक्तिनुं भान थयुं छे पण हजी सर्वज्ञता प्रगटी नथी
अने राग छे त्यारे, जेमने पूर्ण सर्वज्ञता प्रगटी गई छे एवा केवळी भगवान प्रत्ये तेमज ते
सर्वज्ञताना साधक संतो प्रत्ये बहुमान अने भक्तिनो उल्लास आव्या विना रहेतो नथी. साक्षात्
तीर्थंकर भगवान बिराजता होय तेमने केवळज्ञान थतां ईन्द्रो आवीने दिव्य समवसरण
(धर्मसभा)नी रचना करे छे, तेमां बार सभा होय छे, अने तेनी वच्चे त्रण पीठिकाओ उपर
निरालंबीपणे भगवान बिराजे छे. तथा समवसरणनी चार बाजु सोनानां ने रत्नोनां चार मोटां
मानस्तंभ होय छे. भगवानने तो कांई राग के ईच्छा नथी; ईन्द्र समक्ति छे–एकावतारी छे, तेने
एवो भक्तिनो भाव आवे छे. सोनगढमां ए मानस्तंभनो नमूनो छे; मानस्तंभ ते कीर्तिस्तंभ
नथी पण धर्मस्तंभ छे, तेने जोतां ज मिथ्याद्रष्टिनां अभिमान गळी जाय छे. भगवाने पुण्यथी पार
चिदानंदतत्त्वनुं पहेलांं भान कर्युं अने पुण्यनो निषेध करीने चिदानंदस्वरूपमां एकाग्रताथी भगवान
केवळज्ञान पाम्या; त्यां पुण्यनां फळ एवां आव्यां के सम्यग्द्रष्टि एकावतारी ईन्द्रो आवीने तेमना
चरणनी सेवा करे छे, ने समवसरणनी एवी अद्भुत रचना करे छे के जोनार आश्चर्यमां पडी जाय.
धर्मीने रागथी पार पोताना चिदानंदस्वभावनुं भान छे छतां तेने आवो भक्तिनो राग थया विना
रहेतो नथी. धर्मीने राग थाय छे माटे ते रागथी लाभ मानता हशे–एम नथी. राग थवा छतां ते
वखते धर्मीने भान वर्ते छे के हुं आ रागथी पार छुं, मारुं स्वरूप तो अचिंत्य ज्ञानानंदमय छे, मारा
चिदानंद आत्माने आ रागनुं अवलंबन नथी. आवा चैतन्यतत्त्वनी समजण करवी ते मूळ वस्तु
छे. ज्ञानानंदस्वभावे भरेलो आ चैतन्य भगवान रागथी पार छे, तेने स्वसंवेदनज्ञानथी जाणवो ते
अपूर्व धर्म छे.
नरक–निगोदना अवतारमां तारो आत्मा रझळशे. माटे सत्समागमे आत्माना स्वरूपनो निर्णय कर.
चैतन्यस्वरूप आत्माना निर्णय विना जीव अनादि काळथी संसारमां रखडी रह्यो छे, संसारमां