Atmadharma magazine - Ank 139
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: १७६ : आत्मधर्म २४८१ : वैशाख :
मूनिवरो ज मुक्तिसुंदरीने वरवाने लायक छे. आ सिवाय मिथ्याद्रष्टि–उद्धत जीवो सुंदर मुक्तिरूपी
वारांगनाने वरवाने लायक नथी. मुक्तिसुंदरी कहे छे के एवा मिथ्याद्रष्टिने हुं वरुं नहीं.
शुद्धरत्नत्रयना साधक एवा मुनिवरोने ज हुं वरुं छुं.
एकवार एक खानदान बाईना लग्ननो प्रसंग हतो. जान आवेली, लग्ननुं टाणुं नजीक आव्युं;
लग्नने थोडी वार हती त्यां वरने एम थयुं के मारे जेनी साथे लग्न करवानां छे ते कन्याने नजरे
जोईने हुं पसंद करी लउं. आवो विचार आवतां तेणे कन्याने जोवानी मांगणी करी. कन्याना पिता
गभराई गया, पण कन्या महासुंदर ने हिंमतवाळी! तेणे कह्युं–पिताजी! ए भले आवे, एने जोवा
माटे बोलावो वरने जोवा माटे बोलाव्यो. कन्याने जोतां ज छक थई गयो. कन्याए कह्युं–केम कांई
पूछवुं छे? वर कहे–अरे! आमां शुं कहेवानुं होय! कन्या कहे–बराबर पसंद छे ने! वर कहे.. हा.
एम कहीने प्रसन्नताथी ज्यां पाछो जवानी तैयारी करे छे त्यां तो कन्या कहे– ‘ऊभा रहो’ ते ऊभो
रह्यो, एटले कन्याए कह्युं–तमे तो मने पसंद करी; पण हवे हुं तमने पसंद करुं छुं के नहि–ए वात
तो मने पूछो वर कहे–केम! एमां कांई कहेवुं छे? कन्या कहे –हा, सांभळो! हुं तमारा जेवा उद्धतने
पसंद करती नथी, माटे एम ने एम पाछा चाल्या जाव!!
–तेम अहीं उद्धत एटले अज्ञानी मूढ जीव. ते कहे छे के मारे मुक्तिसुंदरीने वरवुं छे, मारे
मुक्ति जोईए छे, हुं मुक्ति माटे ज आ व्रतादि शुभराग करुं छुं. आ रीते अज्ञानी शुभराग वडे
मुक्ति लेवा चाहे छे अने कहे छे के मारे स्वर्गादि कांई जोईतुं नथी, हुं मुक्तिने ज चाहुं छुं. पण ज्ञानी
कहे छे के अरे भाई! तुं मुक्तिने तो पूछ, के ए तने पसंद करे छे? मुक्तिसुंदरी तारा लाख
शुभरागथी पण प्रसन्न थाय एवी नथी. मुक्तिसुंदरी तो कहे छे के अरे! आ व्रतादिना रागथी धर्म
मनावनारा तो सर्वज्ञ वीतरागना विरोधी छे, उद्धत छे, एने हुं पसंद करती नथी. हुं तो सम्यग्दर्शन
ज्ञानपूर्वक वीतरागी खानदानीथी शोभता मुनिवरोने ज पसंद करुं छुं. रागथी के व्यवहारना
आश्रयथी धर्म मनावनारा मूढ जीवोने मुक्तिसुंदरी पसंद करती नथी एटले के तेओ कदी मुक्ति
पामता नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक वीतरागी मोक्षमार्गे चालनारा मुनिवरोने ज मुक्तिसुंदरी चाहे
छे एटले के तेओ ज मुक्तिसुंदरीना नाथ थाय छे.
• जय हो.मुक्तिसुंदरीना नाथनो! •
आनंद
अहो! सम्यग्द्रष्टि पोताना आत्मा सिवाय क्यांय सुख देखतो नथी, ते सुखने
पोताना आत्मामां ज देखे छे. आथी कदी पण तेने आत्मानो महिमा छूटीने परनो महिमा
आवी जतो नथी.
हे भाई! तारो आनंद तारामां ज शोध, तारो आनंद तारामां छे, ते बहार शोधवाथी
नहि मळे. तारुं आखुं द्रव्य ज सर्वप्रदेशे आनंदथी भरेलुं छे; तेने देख, तो तने तारा अपूर्व
आनंदनो अनुभव थाय. पोतानो आनंद पोतामां ज छे–एम जाणीने तुं आनंदित थाय.
–पू. गुरुदेव.
(–सुख शक्तिना प्रवचनमांथी)