Atmadharma magazine - Ank 139
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४८१ आत्मधर्म : १७५ :
रोमेरोममां समाधि परिणमी गई छे, आवी मुनिदशामां सहजपणे समिति होय छे. चिदानंद
स्वरूपमां लीनताथी मुनिवरोने एवी समाधि थई गई छे के बधा जीवो प्रत्ये अनुकंपा वर्ते छे,
आत्माना शांतरसना वेदन आडे दुश्मन प्रत्ये पण द्वेषनी वृत्ति ऊठती नथी; निःशंकापणे मोक्षमार्गने
स्थापे छे, विपरीततानुं खंडन करे छे, छतां द्वेषनो भाव नथी, विरोध करनार प्रत्ये पण द्वेष नथी.
अंतरमां चैतन्यना आश्रये पोताने आनंद वर्ते छे, शांतिना धोरीमार्गे पोते विचरे छे.
–आवा मुनिओ ज्यारे आहार माटे जाय त्यारे जो वच्चे कोई बालक वगेरेनुं रुदन सांभळे
तो आहारनी वृत्ति तूटी जाय छे: अरे! अमे शांतिना साधक, त्यां वच्चे आ अशांतिनी राड क्यां?
अमे अमारा शांतरसने पोषनारा, त्यां वच्चे आवा अशांतिना प्रसंग न होय. आवा प्रसंग बने
त्यां अमारो आहार न होय. आग लागी होय एवा प्रसंगे पण मुनि आहार न ल्ये. अरे! अमे तो
शांतरस वडे संसारना दावानळने ओलवनारा, त्यां आवा अग्निना प्रसंगे अमारे आहार न होय.
अमे तो आत्माना अतीन्द्रियआनंदनुं भोजन करनारा! आ रीते चैतन्यना अवलंबनपूर्वक
आहारनी वृत्ति छूटी जाय छे. आवा मुनिवरोने एषणा समिति होय छे.
जैनदर्शनना संतमुनिवरो केवा होय छे तेनुं आ वर्णन छे. मोक्षने साधनारा मुनिवरो वन
जंगलमां विचरनारा ने आत्माना शांतरसमां लीन होय छे, ईन्द्रियो तरफथी वलण छूटीने
आत्माना अतीन्द्रिय आनंदमां तेमनुं वलण नमी गयुं छे, माताए जन्मेला नानकडा बाळक जेवी
निर्दोष तेमनी आकृति छे. आवा मुनि जंगलमांथी आहार माटे गाममां पधारता होय, –त्यां जाणे के
सिद्धभगवान गाममां पेसता होय!! जेम आत्माना भान वगरना जीवोने ‘चल शब’ –चालतां
मडदां कह्यां छे, तेम चैतन्यने साधनारा संतो जाणे के ‘चालता सिद्ध’ छे; तेओ पगलां भरता होय
त्यां जाणे के पोतानी सिद्धदशा लेवा माटे चाल्या जता होय! आवो वीतरागी मुनिओनो मार्ग छे.
वीतरागमार्गमां मुनिवरोनी आवी अद्भुतदशा होय छे.
आवा मुनिवरो, भक्तोना हाथे विधिपूर्वक देवामां आवेलो निर्दोष आहार ज ल्ये छे, प्राण
जाय तो पण आहारादिनी याचना करता नथी. याचना करवी ए मुनिओनो मार्ग नथी पण ए तो
भीखारीओनो मार्ग छे. मुनिओ तो सिंह वृत्तिवाळा होय छे. जेम सिंह सामाने पूछतो नथी के ‘तने
मारुं? ’ तेम वीतरागमार्गना मुनिवरो आहार माटे कदी याचना करता नथी. निस्पृह मुनिवरो कदी
मांगे नहि पण भक्तो घणा बहुमानपूर्वक विधिथी आहार आपे. भरतचक्री जेवा पण भोजन
समये मुनिवरोने आहारदान माटे प्रतीक्षा करता के अहो! कोई मुनिराज पधारे! तो मारा आंगणे
आहार माटे पडगाहन करुं! आम भक्तो द्वारा भक्तिपूर्वक हाथमां देवामां आवेलो निर्दोष आहार
ज मुनिओ ल्ये छे.
आहारनी शुभवृत्ति ऊठे तेनी कांई मुनिओने मुख्यता नथी, परंतु आहारनी वृत्ति उपरांत
आत्मानुं ध्यान वर्ते छे; ज्ञानप्रकाशी आत्मानुं ध्यान वर्ते छे ते ज खरेखर तप छे. चैतन्यसूर्यना
ध्यानरूप जे तप, तेना वडे तपस्वी मुनिराज देदीप्यमान एवी मुक्तिवारांगनाने प्राप्त करे छे.
पूर्ण ज्ञानप्रकाशी आत्मानुं वारंवार निर्विकल्पआनंदमय ध्यान मुनिवरोने वर्ते छे. आवा