जाणे पण ते बधानो सार तो शुद्ध चैतन्यस्वभाव तरफ ढळवुं ते ज छे. ए वात छेल्ले ४४८मां पाने
आचार्यदेवे करी छे.
पोते परने ईश्वरता आपीने (अर्थात् परनो आश्रय करीने) पराधीनता भोगवे छे. धर्मीनी
द्रष्टिमां तो शुद्ध चैतन्य पिंडनो ज आश्रय वर्ते छे पण हजी चारित्रमां विकार थाय छे ते निमित्तना
आश्रये थाय छे तेटली निमित्तनी ईश्वरता छे ने आत्मानी पराधीनता छे. स्वभावनी द्रष्टिमां
पोतानी ईश्वरतानुं भान राखीने, पर्यायमां जे विकार थाय छे तेटली पोतानी पराधीनता छे–एम
धर्मी जाणे छे. पण परद्रव्य पराणे बरजोरीथी जीवने विकार करावे–एवो कोई धर्म आत्मामां के
परद्रव्यमां नथी. स्वभावनी स्वतंत्र ईश्वरता–प्रभुताने चकीने, एकला निमित्तने ज ईश्वरता
आपीने तेनी सामे जोया करे तेने आवो ईश्वरनय होतो नथी. अहीं तो जेने आत्मानी प्रभुतानुं
भान थयुं छे एवा ज्ञानी कोई वार ईश्वरनयथी एम कहे छे के आ रागद्वेष थाय छे ते मारा
स्वभावनी ईश्वरताथी थता नथी पण निमित्तनी–कर्मनी मोटपथी थाय छे अने तेटलो
पराधीनतानो भोगवटो छे. कर्मनी बळजोरीथी विकार थयो–एम पण कहेवाय, –पण एम
कहेनारनी द्रष्टि क्यां होय? विकार वगरनुं शुद्धचैतन्यद्रव्य स्वतंत्र छे एम जेणे जाण्युं होय, एटले
स्वभावनी बळजोरी प्रगटी होय, ते जीव स्वभावद्रष्टिना बळथी विकारने कर्मनी बळजोरीथी थयेलो
कहे छे, ने तेने ज ईश्वरनय होय छे.
ओळखाववा माटे तेना धर्मोनुं वर्णन कर्युं छे. जेम मुसाफरना बाळकने धावमाता धवरावे त्यां ते
बाळक पराधीनपणे धावे छे’ तेम अनंतधर्मनो पिंड चैतन्यमूर्ति आत्मा स्वभावथी तो रागादिनो
भोगवनार नथी पण पर्यायमां रागादि भावोने पराधीनपणे भोगवे छे, तेथी ईश्वरनये आत्मा
परतंत्रता भोगवनार छे–एम कह्युं. ईश्वरनयथी पराधीनता जाणनार, ते ज वखते पोताना
स्वभावनी स्वाधीनताने पण समजे छे. जो एकली पराधीनताने ज माने ने स्वाधीनताने न जाणे
तो ते पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे; अने एकली स्वाधीनता ज मानी ल्ये, पर्यायमां पराधीनता छे तेने
जाणे नहि–तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. द्रव्य अने पर्याय बंनेथी वस्तुने जेम छे तेम जाणवी जोईए
द्रव्य अने पर्याय बंनेने यथार्थपणे जे ओळखे तेनी द्रष्टिनुं जोर शुद्ध द्रव्य तरफ ज वळी जाय छे;
कोई पण नयथी जुए के प्रमाणथी जुए तो पण अंतरंगमां आत्माने शुद्ध चैतन्यमात्र देखे छे,
‘स्यात्कारने वश वर्तता’ ईश्वरनयथी जुओ के कोई पण नयथी जुओ तो पण अनंत धर्मोवाळुं
निज आत्मद्रव्य शुद्ध चैतन्यस्वरूप देखाय छे, एकेक धर्म आखा धर्मीने (शुद्ध चैतन्यद्रव्यने) बतावे
छे, एने ए ज नयज्ञाननुं खरुं फळ छे. नयो कांई विकल्पमां अटकवा माटे नथी पण वस्तुने साधवा
माटे छे. ईश्वरनयथी आत्मा पराधीन छे–एम जोनारने पण ते वखते अंतरमां