Atmadharma magazine - Ank 139
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४८१ आत्मधर्म : १८३ :
अंर्तस्वरूपमां एकाग्रता वडे मोहने मारीने स्वेच्छापूर्वक पोताना आनंदनो भोगवनार छे. आवो
तेनो एक धर्म छे. आवा धर्मथी जे पोताना आत्माने ओळखे ते परनो ओशीयाळो न थाय. धर्मी
जाणे छे के आ जगतमां कोई पण द्रव्यमां गुणमां के पर्यायमां एवी ताकात नथी के मारी स्वतंत्रताने
लूंटी शके. हुं अनीश्वर छुं एटले के मारा उपर बीजो कोई ईश्वर नथी, हुं ज मारा घरनो मोटो ईश्वर
छुं. माराथी मोटो एवो कोई ईश्वर आ जगतमां नथी के जे मारा स्वाधीन स्वभावने लूंटीने मने
पराधीन बनावे. देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्माने आत्मानुं केवळज्ञानादि पूर्ण ऐश्वर्य प्रगटी गयुं छे
तेथी तेओ परमेश्वर छे, पण तेमनी ईश्वरता तेमना आत्मामां छे, मारामां तेमनी ईश्वरता नथी.
शक्तिपणे तीर्थंकर भगवान अने मारो आत्मा बंने सरखा छे, मारा द्रव्यमां पण तीर्थंकर भगवान
जेवुं ज ईश्वरपणुं स्वभावरूपे भर्युं छे. विनयथी धर्मी पण एम कहे के अहो! तीर्थंकर परमात्मा
अमारा नाथ छे, तीर्थंकर परमात्मा जेवा धींगधणी अमे धार्या छे तेथी हवे अमने शी चिंता छे?
पण ते ज वखते अंतरमां भान वर्ते छे के परमार्थे मारो धींगधणी भगवान तो मारो आत्मा ज छे.
खरेखर मारो आत्मा पोते ज मारो स्वामी छे–एम अनुपचार स्वरूपना भान सहित, भगवानने
धींगधणी कहेवा ते उपचार छे. हे वीतराग चैतन्यमूर्ति आत्मा! अंर्तद्रष्टिथी में तने दीठो ने तने
धणी स्वीकार्यो, धींगधणी एवा चैतन्य परमेश्वरने द्रष्टिमां धारण कर्यो, त्यां मारां दुःख ने दुर्भाग्य
दूर थई गयां ने आत्मानी आनंदसंपदानो भेटो थयो. ––आवी द्रष्टिपूर्वक, विकल्प वखते भगवानने
धींगधणी कहे तो त्यां ईश्वरनय लागु पडे. पण एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं धणी छे–एम ज माने तो
द्रव्यनी स्वतंत्रतानुं भान रहेतुं नथी, त्यां तो एकांत थई जाय छे एटले त्यां नय पण लागु पडतो
नथी. अहीं तो कहे छे के आत्माना द्रव्य–गुण ने पर्याय त्रणे स्वतंत्र छे––आवी स्वाधीनतानी प्रतीत
करीने शुद्ध चैतन्यद्रव्यनो अनुभव करवो ते बधा नयोनुं फळ छे.
जेम जंगलमां हरणने फाडी खातो सिंह कोईने आधीन नथी, तेम स्वभाव तरफ वळीने
अतीन्द्रियआनंदने भोगवतो आत्मा कोईने आधीन नथी, काळने आधीन नथी, धर्मने आधीन
नथी. निमित्तोने आधीन नथी, पण स्वाधीनपणे भोगवनार छे. आ रीते अनीश्वरनये आत्मा
पोते ज पोतानो नाथ छे, बीजो कोई तेनो धणी नथी.
प्रश्न:– स्त्रीने माथे तो धणी होय छे, एटले तेने आ वात कई रीते लागु पडे?
उत्तर:– अरे भाई! बधा आत्माने आ वात लागु पडे छे. स्वभावथी बधा आत्मा स्वाधीन
चैतन्यमूर्ति छे. स्त्री अने पुरुष ते तो देह छे, परंतु स्त्रीदेहमां रहेलो आत्मा पण पोताना स्वभावनुं
आवुं भान करी शके छे के अनीश्वर नये हुं स्वाधीन छुं, मारो कोई धणी नथी. राग होय एटले
निमित्तथी बीजाने धणी कहेवाय, पण ते वखतेय अंतरनी द्रष्टिमां तो एकधारी प्रतीत वर्ते छे के हुं
पोते चैतन्य परमेश्वर छुं, मारा आत्मा सिवाय बीजो कोई मारो ईश्वर के स्वामी नथी. अरे! आठ
वरसनी राजकुंवरीने सम्यग्दर्शन थाय ते पण एम जाणे छे के हुं स्त्री नथी पण हुं तो
शुद्धचैतन्यमूर्ति आत्मा छुं, मारी प्रभुता मारामां छे, बहारमां बीजो कोई मारा आत्मानो स्वामी
नथी. ते सम्यग्द्रष्टि बालिकाने आवुं भान होवा छतां पछी परणे पण खरी, ने पतिने स्वामी कहीने
बोलावे, छतां तेने