अमारा स्वामी छो’ पर्यायमां राग होवाथी आटली पराधीनता छे–एनुं धर्मीने ज्ञान वर्ते छे, पण
ते ज वखते अंर्तद्रष्टिमां आत्मानी स्वाधीन प्रभुतानुं पण भान वर्ते छे; ईश्वरनय वखते
अनीश्वरनयनी अपेक्षा पण भेगी छे. पोताना द्रव्यस्वभावनी त्रिकाळी ईश्वरताने चूकया वगर
पर्यायनी पराधीनता पूरती परने ईश्वरता आपे छे–त्यां ईश्वरनय साचो छे. पण पोताना
स्वभावनी ईश्वरताने भूलीने एकला परने ज जे ईश्वरता आपे छे तेने ईश्वरनय पण साचो नथी
ते तो पर्यायमां ज मूढ होवाथी मिथ्याद्रष्टि छे. स्वभावनी ईश्वरता चूकीने एकला परने ईश्वरता
आपी तेने स्वभाव तरफ वळवानुं तो रह्युं ज नहि. शरूआतमां आचार्यदेवे कह्युं हतुं के श्रुतज्ञान
प्रमाणथी स्वानुभव वडे आत्मा जणाय छे; ए रीते आत्मा जे जाणे तेने ज सम्यक् नय होय छे,
केमके नय ते श्रुतज्ञान प्रमाणनो अंश छे. धर्मी वस्तुना ज्ञान वगर तेना धर्मनुं साचुं ज्ञान होय
नहि. छेल्ले पण आचार्यदेव कहेशे के स्याद्वाद अनुसार नयथी जाणे के प्रमाणथी जाणे तो पण जीव
अंतरमां पोताना आत्माने शुद्ध चैतन्यमात्र देखे छे ज. अंतर्मुख द्रष्टि करीने जेणे पोताना शुद्ध
चैतन्यस्वरूप आत्माने अनुभव कर्यो तेणे ईश्वरनो साक्षात्कार कर्यो छे. पोतानो शुद्ध आत्मा ते ज
चैतन्य परमेश्वर छे, स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी तेनो अनुभव करवो ते ज ईश्वरनो साक्षात्कार छे; ए
सिवाय बीजा कोई ईश्वर दर्शन देवा आवता नथी.
एम कहे के ‘हे नाथ! हे प्रभो! आप अमारा तीर्थपति छो, चारे तीर्थना आप नायक छो. आप ज
अमारा ईश्वर छो.’ –ते वखते अंतरमां तेमने शुद्ध चैतन्यस्वभाव उपर ज द्रष्टि पडी छे. हुं तो
अनंत धर्मनो पिंड शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा छुं, मारो आत्मा स्वाधीन छे, तेनो कोई नाथ नथी–
एवुं अंतरभान ईश्वरनय वखते पण धर्मात्माने वर्ते छे.
पोते ज रक्षण करे छे, अने नहि मळेला एवा सम्यक्चारित्र वीतरागता–केवळज्ञान वगेरेने पोते ज
अंर्तस्वभावमां एकाग्र थईने मेळवे छे, आ रीते आत्मा पोते पोताना जोग–क्षेमनो करनार छे
तेथी भगवान आत्मा पोते ज पोतानो नाथ छे. भक्तिने लीधे तीर्थंकर भगवानने आत्माना नाथ
कहेवा ते विनयना निमित्तथी कथन छे. स्याद्वाद अनुसार गमे ते नयनुं कथन हो, तेमां कांई विरोध
आवतो नथी. गमे ते नयथी के प्रमाणथी जोतां स्याद्वादी धर्मात्माने पोतानो आत्मा शुद्धचैतन्य
मात्र स्वरूपे ज अंतरमां देखाय छे. अंर्तद्रष्टि करीने जे आवा आत्माने देखे तेणे ज आत्माने
ओळख्यो कहेवाय.