Atmadharma magazine - Ank 139
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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करीने अनेकान्त वडे जेणे भगवान आत्माने प्रसिद्ध कर्यो छे तेने अभेद परिणमनमां आ बधी शक्तिओ
निर्मळपणे ऊछळे छे.
उत्पाद–व्यय–ध्रुवता तो बधा जीवोने अनादिथी छे ज, उत्पाद–व्यय–ध्रुवता विनानो कोई जीव एक क्षण
पण होय नहि. पण ज्ञानी पोताना आवा स्वभावने जाणतो तेना आश्रये निर्मळपणे ऊपजे छे अने अज्ञानी
पोताना आवा स्वभावने नहि जाणतो पराश्रये विकारपणे ऊपजे छे––बस! आमां धर्म–अधर्म समाई जाय छे.
स्वाश्रित निर्मळ परिणमन ते धर्म अने मोक्षमार्ग छे, ने पराश्रित विकारी परिणमन ते अधर्म अने संसार छे.
जेम अभव्य जीवने पण ज्ञानगुण तो अनादिअनंत परिणमे छे, ज्ञान परिणमन वगरनुं तो एक समय पण
होय नहि, पण तेने पोताना ज्ञानस्वभावनी खबर नथी एटले ज्ञानशक्तिनो आश्रय करीने ते नथी
परिणमता, तेथी तेने ज्ञानशक्तिनुं खरुं परिणमन थतुं नथी. ज्ञानशक्ति साथे अभेद थईने न परिणमतां, पर
साथे एकता मानीने परिणमे छे तेथी ज्ञान अज्ञानरूप थईने परिणमे छे, ते खरेखर ज्ञाननुं परिणमन नथी.
ज्ञानशक्ति साथे एकता करीने परिणमे ते ज ज्ञाननुं खरुं परिणमन छे. तेम आ उत्पाद–व्यय–ध्रुवत्वशक्ति पण
बधा जीवोमां त्रिकाळ छे, ने तेनुं परिणमन पण थई ज रह्युं छे; पण अज्ञानीने स्वभावमां अभेदपरिणमन
नथी तेथी एकलुं विभावरूप परिणमन छे. ते विभावरूप परिणमन पण तेनी पोतानी शक्तिनुं ऊंधुंं परिणमन
छे, परने कारणे नथी. विभावरूप परिणमन जो परने कारणे थतुं होय तो ते वखते तेनी शक्तिनुं पोतानुं तो
कांई परिणमन न रह्युं, एटले शक्ति ज न रही, ने शक्ति वगर आत्मा ज न रह्यो! माटे ए द्रष्टि ऊंधी छे.
विभावपरिणमन पण तेनुं पोतानुं छे पण ते स्वभावनी साथे एकमेक नथी माटे ते शक्तिनुं खरुं परिणमन
नथी–एम ज्ञानी जाणे छे. जे एकला विभावना ज क्रमपणे परिणमे तेने खरेखर आत्मा ज कहेता नथी. जो के
‘आत्मा’ मटीने ते कांई ‘जड’ थई गयो नथी, पण तेने पोताने क्यां आत्मानी खबर छे? तेने पोताने
आत्मानी खबर नथी तेथी तेनी द्रष्टिमां तो आत्मा छे ज नहि. क्रम अने अक्रमपणे वर्तवाना स्वभाववाळुं जे
आत्मद्रव्य तेनो आश्रय (रुचि अने लीनता) करीने परिणम्यो तेने ज आत्मानी प्रसिद्धि थई, एटले स्वाश्रय
करीने निर्मळपणे परिणम्यो ते ज खरेखर आत्मा छे.
‘आत्मानो क्रम–अक्रम स्वभाव छे, तेथी तेनी पर्यायो क्रमबद्ध पण थाय ने अक्रमे पण थाय’ –एम कोई
कहे तो तेनी वात जूठी छे, आत्माना क्रम–अक्रम स्वभावने (उत्पाद–व्यय–ध्रुवत्वशक्तिने) ते समज्यो नथी.
भाई! अक्रमपणुं तो गुणोनी ध्रुवता अपेक्षाए छे, पर्याय अपेक्षाए कांई अक्रमपणुं नथी, पर्यायो तो क्रमवर्ती
स्वभाववाळी ज छे.
वस्तुना बधा गुणो सहभावी छे एटले के एक साथे सर्व प्रदेशे पथरायेला छे, एक बीजानो साथ
छोडता नथी, एटले तेमां क्षेत्रभेद के काळभेद नथी. ने पर्यायो क्रमभावी छे एटले एक पछी बीजी थाय छे, बे
पर्यायो भेगी थती नथी एटले तेमां काळभेद छे.
पर्यायो क्रमवर्ती होवा छतां आडीअवळी नथी पण नियत छे. जेम वस्तुना बधा गुणो एक साथे ज
वस्तुमां सर्व प्रदेशे व्यापेला छे, तेमां कदी कोई गुण घटतो के वधतो नथी; तेम वस्तुना अनादि अनंत
प्रवाहक्रममां त्रणकाळनी पर्यायो पोतपोताना समयमां व्यापेली छे. त्रणकाळनी पर्यायोनो प्रवाह नियत पड्यो
छे, पर्यायोनी क्रमबद्धधारानी संधि कदी तूटती नथी. आ रीते पर्यायने ‘क्रमवर्ती’ कहेतां तेनो अर्थ ‘निश्चित
क्रमबद्ध’ थाय छे–एनो खुलासो कर्यो. कोई एम कहे छे के ‘क्रमवर्ती’ नो अर्थ फक्त ‘एक पछी एक’ एटलो ज
करवो, एक पछी एक थनार पर्यायमां अमुक समये अमुक ज पर्याय थशे–एम न लेवुं, –पण ए वात खोटी छे.
क्रमवर्ती पर्याय कहेतां एक पछी एक तो खरुं, पण कया समये कई पर्याय थवानी छे तेनो क्रम पण निश्चित छे.
प्रमेयकमलमार्तंडमां (३–२८) ‘क्रमभाव’ ने माटे नक्षत्रोनुं द्रष्टांत आप्युं छे.
जेम २८ नक्षत्रो निश्चित क्रमबद्ध छे, सात वार निश्चित क्रमबद्ध छे, तेम द्रव्यनी त्रणकाळनी पर्यायो पण
निश्चित क्रमबद्ध छे. पर्यायोने क्रमबद्ध न माने तो वस्तुमां उत्पाद–व्यय सिद्ध थता नथी, उत्पाद–व्यय विना
ध्रुवता पण रही शकती नथी; अने उत्पाद–व्यय–ध्रुवता विना वस्तु ज सत्’ सिद्ध थती नथी, केम के ‘सत्’
सदाय उत्पाद–व्यय–ध्रुव युक्त ज होय छे, उत्पाद–व्ययध्रुव वगरनी कोई पण वस्तु सत् होई शके नहि. अहो!
एक–उत्पाद–व्यय–ध्रुवत्व शक्ति वर्णवी तेमां घणुं रहस्य भर्युं छे.
अहीं २८ नक्षत्रनो दाखलो आपतां २८ मूळ गुण याद आवी गया; जुओ, कुदरतमां नक्षत्रो २८ छे ने
(अनुसंधान माटे जुओ टाईटल पान २ उपर)