नियमथी कर्तव्य छे, तेथी शुद्धरत्नत्रय ते नियमसार छे. शुद्धरत्नत्रयरूपी जे नियमथी करवा जेवुं कार्य, ते कार्यनुं
कारण कोण? ते अहीं ओळखावे छे.
एटले के तेनी द्रष्टि करीने एकाग्र थतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रगटी जाय छे.
स्वभावअनंतचतुष्टयमय शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम छे तेनी वात छे. आ स्वभाव अनंतचतुष्टय कह्या ते
पारिणामिकभावरूप छे, ने केवळज्ञानादि चतुष्टय प्रगटे छे ते तो क्षायिकभावरूप छे.
मोक्षमार्ग प्रगटे छे. अहीं जे ‘शुद्धज्ञानचेतना परिणाम’ कह्या ते त्रिकाळ पारिणामिकभावे छे, औदयिकादि चार
भावोथी ते निरपेक्ष छे अने द्रव्यद्रष्टिनो विषय छे. चेतनाना त्रण प्रकारोमां जे ज्ञानचेतना आवे छे ते तो
पर्यायरूप छे, कार्य छे, ने व्यवहारनयनो विषय छे. त्रिकाळी शुद्धज्ञानचेतना परिणाम ते कारणनियम छे, ने
तेना अवलंबने निर्मळकार्य प्रगटी जाय छे.
अनुभवना ऊंडाणमांथी आ भावो नीकळ्या छे. अहो! संतो अपूर्व वारसो मूकी गया छे. शुद्धरत्नत्रयरूपी जे
तारुं कर्तव्य, तेनुं कारण तारा स्वभावमां ज वर्ते छे. अंतरमां ज्यारे जो त्यारे मोक्षमार्गनुं कारण तारामां वर्ती
ज रह्युं छे. आ कारणने ओळखीने तेनी साथे एकता करतां मोक्षमार्गरूपी कार्य थई जाय छे. अंतरमां कारण–
कार्यनी एकता साधतां साधतां आ टीका रचाई गई छे. जुओ तो खरा! टीकाकारे केवा भावो काढ्या छे!!
जंगलमां बेठाबेठा सिद्धनी साथे वातुं करी छे: ‘हे भगवान सिद्ध! तमे केवा कारणथी सिद्ध थया?’–के अंतरमां
जे सहज शुद्ध ज्ञानचेतनापरिणाम त्रिकाळ कारण छे ते कारणना आश्रये ज मोक्षमार्ग प्रगट करीने सिद्ध थया.’
पोते पण एवा कारणनुं सेवन करीने सिद्धदशाने साधी रह्या छे,–एवा मुनिओनी टीका रची छे.
परिणाम वर्ते छे, ते ज मोक्षमार्गनुं कारण छे, आम बतावीने आचार्यदेवे व्यवहारना अवलंबननी बुद्धि
छोडावी छे. शुद्धरत्नत्रयरूप जे निश्चय मोक्षमार्ग तेने मोक्षनुं कारण कहेवुं ते पण व्यवहारकारण छे, केमके ते
पर्यायना आधारे कांई मोक्षपर्याय प्रगटती नथी. शुद्धरत्नत्रय ते मोक्षमार्ग तो निश्चयथी छे, पण ते
निश्चयमोक्षमार्गने मोक्षनुं कारण कहेवुं ते व्यवहार छे. सहज शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम–के जेने आगळ जतां
‘कारणशुद्धपर्याय’ कहीने वर्णवशे–ते मोक्षनुं निश्चयकारण छे, तेना आधारे सम्यग्दर्शन–ज्ञानचारित्र ने मोक्षदशा
प्रगटी जाय छे. मोक्षदशामां पण ते कारणनो अभाव थतो नथी, मोक्षदशामां पण ते सदाय साथेने साथे रहे छे.
एवा आ स्वभावचतुष्टयमय शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम ते पण ध्रुवरूप छे. कारणनियमरूप छे, दरेक आत्मामां
त्रिकाळ एकरूप रहेल छे; ते पारिणामिकभावे छे; तेमां परिणमन कहेवाय, पण ते परिणमन सद्रशरूप छे,
संसार अने मोक्षपर्यायनी जेवुं उत्पाद–व्ययरूप परिणमन तेमां नथी. आवो कारणस्वभाव अंर्तर्द्रष्टिनो विषय
छे. आवा कारणने ओळखे तो निर्मळ