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‘नियम’ एटले नियमथी जे करवा योग्य होय ते; अर्थात् ज्ञान–दर्शन चारित्र ते नियम छे; अने तेनाथी
विपरीतना परिहार अर्थे खरेखर ‘सार’ एवुं वचन कह्युं छे.
चोक्कसपणे करवा योग्य एवा जे रत्नत्रय ते नियम छे.––पण आम कहेवाथी व्यवहाररत्नत्रयना रागने
पण कोई मोक्षनुं कारण न मानी बेसे ते माटे आचार्यदेव स्पष्ट खुलासो करे छे के ‘नियम’नी साथे ‘सार’ शब्द
कहीने अमे विपरीतने परिहार कर्यो छे; एटले के निश्चयरत्नत्रयथी विपरीत एवा जे व्यवहाररत्नत्रयनो राग
ते मोक्षमार्ग नथी पण बंधमार्ग छे–एम बताव्युं छे. मोक्षने माटे कर्तव्य होय तो ते राग रहित शुद्धरत्नत्रय ज
छे; ए सिवाय शुभरागरूप जे व्यवहार रत्नत्रय छे ते खरेखर कर्तव्य नथी, मोक्षनुं कारण नथी.
अहो! निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे शुद्ध रत्नत्रय ते ज मोक्षमार्ग छे. ए सिवाय व्यवहार
रत्नत्रयनो विकल्प ऊठे ते पण निश्चय–रत्नत्रयथी विपरीत छे, तेथी ते परिहार करवा योग्य छे, एटले के तेना
आश्रये मोक्षमार्ग नथी एम जाणीने ते व्यवहारनुं अवलंबन छोडवा जेवुं छे. निश्चयरत्नत्रय ते मोक्षमार्ग छे,ने
व्यवहाररत्नत्रय ते तेनाथी विपरीत एटले के बंधमार्ग छे. व्यवहार करतां करतां तेना आश्रये निश्चयरत्नत्रय
थई जशे–– एम जे माने छे, तेणे विपरीतनो परिहार न कर्यो पण विपरीतनो आदर कर्यो एटले तेनी श्रद्धा
विपरीत थई.
अहीं शुद्धरत्नत्रयने नियमथी कर्तव्य कह्या, तो ते कर्तव्यनुं कारण कोण? शुद्धरत्नत्रयरूप नियम ते
मोक्षमार्ग छे,––कार्यरूप छे. कर्तव्यरूप जे कार्य–नियम तेनुं कारण कोण?–ते अहीं टीकामां खूल्लुं कर्युं छे. कारण तेने
कहेवाय के जेना आश्रयथी कार्य प्रगटे. जेम कार्य वर्तमान छे तेम तेना आश्रयभूत कारण पण वर्तमान ज छे.
अहीं वात करवी छे–मोक्षमार्गनी; पण टीकामां साथे साथे तेनुं ‘कारण’ पण बतावीने अलौकिक वात
करी छे.
“नियमसार” एटले स्वभावरत्नत्रय;
ते स्वभावरत्नत्रयना बे प्रकार–एक कारणरूप, अने बीजा कार्यरूप; अहीं तेने कारणनियम अने
कार्यनियम तरीके वर्णवे छे.
“जे सहज परम पारिणामिक भावे स्थित, स्वभाव–अनंत चतुष्टयात्मक शुद्धज्ञानचेतना परिणाम ते
कारणनियम छे.” अने
“निश्चयथी जे करवा योग्य छे अर्थात् प्रयोजन स्वरूप छे एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते कार्यनियम छे.”
जुओ, आ कारणनियम अने कार्यनियमनी अद्भुत व्याख्या! कारणनियम तो बधा जीवोमां त्रिकाळ
वर्ते छे, ते कांई नवा नथी करवा पडता; पण ते कारणनियमनुं भान करीने तेना आश्रये कार्यनियमरूप
मोक्षमार्ग नवो प्रगट थाय छे, अने ते ज खरेखर कर्तव्य छे.
मोक्षमार्ग केम थाय? ते वात पण आमां आवी गई. कोई परना आश्रये, रागथी, ते व्यवहाररत्नत्रयना
अवलंबनथी मोक्षमार्ग थतो नथी एटले ते कोई मोक्षमार्गनुं कारण नथी; अंतरमां शुद्ध कारण सदाय वर्ती रह्युं
छे, ते कारणना आश्रये ज मोक्षमार्गरूपी कार्य प्रगटे छे.
मूळ सूत्रमां तो णियमेण य जं कज्जं...’ एटले के ‘नियमथी जे कर्तव्य छे...’ एम कहीने आचार्यदेवने
शुद्धरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग बताववो छे, त्यारे टीकाकार मुनिराजे ते मोक्षमार्गरूपी कार्यनी साथे तेनुं कारण पण
वर्णवीने अद्भुत टीका करी छे. जेम समयसारमां अमृतचंद्राचार्यदेवे एवी शैलीथी टीका करी छे के मूळ सूत्रमां
अस्तिनी वात होय तो भेगी नास्तिनी वात करे, अने नास्तिनी वात हो तो भेगी अस्तिनी वात करे.–ए रीते
अलौकिक टीका करी छे; तेम आ नियमसारमां पद्मप्रभमुनिराजे कार्यनी साथे साथे त्रिकाळी कारणनी(–
कारणशुद्धपर्यायनी) वात करीने टीकामां अलौकिक रहस्यो खोल्यां छे. आ अपूर्व वात छे; केटलाक जीवोए तो
जिंदगीमां आ वात सांभळी पण नहि होय.
जीवने नियमथी करवा योग्य जे कार्य ते नियम छे.
––कयुं कार्य नियमथी कर्तव्य छे? प्रथम शरीरादि जड पदार्थोनां कार्यो तो आत्माथी जुदां छे, ते कांई
जीवनां कार्यो नथी, एटले तेनी तो वात नथी. बीजुं, मिथ्यात्व अने राग–द्वैषरूपी कार्य अनादिथी क्षणे क्षणे
करीने जीव संसारमां रखडी रह्यो छे, ते पण जीवनुं खरुं कर्तव्य नथी. जेनाथी