Atmadharma magazine - Ank 140
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २४८१ : १९५ :
कार्यनियम अने कारणनियम
[नियमसार गाथा ३ उपरनां प्रवचनो]
जुओ, आ संतोनी वाणी! जंगलनी गूफामां रहीने
दिगंबर मुनिवरोए आत्माना अनुभवमां कलम बोळी
बोळीने आ भावो काढ्या छे. छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने
आत्माना आनंदमां झूलता मुनिओना अनुभवना
ऊंडाणमांथी आ भावो नीकळ्‌या छे. अहो! संतो अपूर्व
वारसो मूकी गया छे. शुद्धरत्नत्रयरूपी जे तारुं कर्तव्य,
तेनुं कारण तारा स्वभावमां ज वर्ते छे; अंतरमां ज्यारे
जो त्यारे मोक्षमार्गनुं कारण तारामां वर्ती ज रह्युं छे. आ
कारणने ओळखीने तेनी साथे एकता करतां
मोक्षमार्गरूपी कार्य थई जाय छे. अंतरमां कारण–कार्यनी
एकता साधतां साधतां आ टीका रचाई गई छे. जुओ
तो खरा! टीकाकारे केवा भावो काढ्या छे!! जंगलमां
बेठां बेठां सिद्धनी साथे वातुं करी छे........
पू. गुरुदेव

आ नियमसार वंचाय छे. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे आ नियमसारमां अलौकिक भावो भर्या छे; ने
पद्मप्रभमुनिराजे पण टीकामां अध्यात्मना अलौकिक भावो खोल्यां छे. ‘नियमसार’ एटले शुं ते त्रीजी गाथामां
कहे छे––
णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदंसणचरित्तं ।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।
जे नियमथी कर्तव्य एवां रत्नत्रय ते नियम छे;
विपरीतना परिहार अर्थे ‘सार’ पद योजेल छे.