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श्रुतवत्सलसंत त्रिपुटी द्वारा जळवाई
रहेलो तीर्थंकरदेवनो दिव्य वारसो
श्रुतपंचमीनो महोत्सव
बे सफेद उज्वळ वृषभ चाल्या आवे छे..ने जाणे के आवीने प्रदक्षिणा दईने चरणोमां भक्तिपूर्वक
नमी रह्या छे... कोई शुभघडीए आवुं मंगल स्वप्न देखाई रह्युं छे.
ए स्वप्नद्रष्टा छे महामुनिराज धरसेनाचार्यदेव.
अल्पनिद्रामां ए मंगलसूचक द्रश्य देखीने तेओ संतुष्ट थाय छे.
‘जय हो श्रुतदेवतानो...’ एवा आशीर्वाद ए श्रुतवत्सलसंतना श्रीमुखेथी सरी पडे छे.
आजथी अनेक सैकाओ पहेलांनो ए पावन प्रसंग छे.
ए पावन प्रसंगनी जन्मभूमि हती–सौराष्ट्रना गीरनारधामनी चंद्रगूफा!
बीजे दिवसे सवारमां धर्मधुरानुं वहन करवामां समर्थ एवा बे मुनिवरो आवे छे...तेओ भक्ति
अने विनयपूर्वक महामुनिराज धरसेनाचार्यदेवना चरणोमां नमे छे.
त्रण दिवस बाद परीक्षा करीने, तेमना उत्तम बुद्धि अने उत्तमधैर्यथी प्रसन्न थईने, तेओने महावीर
भगवाननी परंपराथी आवेलुं दिव्य श्रुतज्ञान भणावे छे. सर्वज्ञदेवना श्रीमुखथी वहेलो धोध ए
मुनिवरोना निर्मळ हृदयमां ठालवी रह्या छे.
ए रीते भगवान धरसेनाचार्य द्वारा पुष्पदंत अने भूतबलि मुनिवरोने अषाड सुद ११ ना रोज
पूरुं ज्ञान अपाई रहे छे..ने देवो आवीने ए ‘श्रुतधरो’नुं पूजन करे छे.
त्यारबाद, तीर्थंकर भगवान तरफथी परंपरा मळेला ज्ञाननिधाननो ए अपूर्व वारसो कायम
जळवाई रहे ते माटे पुष्पदंत अने भूतबलि ए बंने आचार्यभगवंतो ते ज्ञानने षट्खंडागम नी रचना
वडे शास्त्रारूढ करे छे, अने तेने उपकरण मानीने अंकलेश्वरमां चतुर्विध संघसहित मोटा महोत्सव पूर्वक
ए श्रुतनुं पूजन करे छे.
ज्यारथी ए पुनित प्रसंग बन्यो, त्यारथी ते दिवस ‘श्रुतपंचमी’ तरीके प्रसिद्ध छे; ने आजे पण
जैनोमां ए दिवस उल्लासपूर्वक ऊजवीने श्रुतप्रत्येनी भक्ति व्यक्त करवामां आवे छे.
तीर्थंकर भगवानो वारसो आपनार ए ‘श्रुतवत्सलसंतत्रिपुटी’नो जय हो.