Atmadharma magazine - Ank 140
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २४८१ : १९९ :
प्रगटे एवो तारो भंडार छे. अंतरनी आंख उघाडीने जुए तो खबर पडे ने? तारो भंडार तने खूल्लो करीने
बतावीए छीए. अंतरना भंडारने देख तो पोताना मोक्षने माटे बहारनां कारणो शोधवाना झांवा न रहे. जेने
पोतानी अंर्तशक्तिनो भरोसो नथी ने बहारमां कारणोने शोधे छे तेने कहे छे के अरे जीव! तारा
मोक्षमार्गरूपी कार्यनुं कारण स्वभावरत्नत्रय त्रिकाळ तारी पासे छे, तेना आश्रये तारुं कार्य प्रगटी जशे. ए
सिवाय बीजा कोई कारणना अवलंबनथी मोक्षमार्ग प्रगटे तेम नथी.
दरेक आत्मामां परमात्मदशा प्रगटवानी शक्ति छे, एटले दरेक आत्मा कारण परमात्मा छे. ‘कारण
परमात्मा’ कहेतां त्रिकाळी द्रव्य–गुण अने तेना वर्तमानरूप कारणशुद्धपर्याय ए त्रणे आवी जाय छे; अहीं
कारणशुद्धपर्यायने (अर्थात् शुद्धज्ञानचेतनापरिणामने) ‘कारणनियम’ कहीने मोक्षमार्गना कारणनी एकदम
नजीकता बताववी छे. द्रव्य गुण ने कारणशुद्धपर्याय ए त्रणेनुं कांई जुदुं जुदुं अवलंबन नथी, सम्यग्दर्शन
वगेरेमां ते त्रणेनी अभेदतानुं ज अवलंबन छे. वर्तमानध्रुवरूप आ कारणशुद्धपर्याय वगर द्रव्यनी वर्तमानमां
परिपूर्णता साबित थती नथी,––द्रव्यनी अखंडता सिद्ध थती नथी.
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ ए चार द्रव्योमां अनादिअनंत एक सरखुं परिणमन
छे, सदा पारिणामिकभावे तेनी पर्याय वर्ते छे; बधाने जाणनार ज्ञायकतत्त्व जीव छे, तेनी संसार के मोक्षरूप
उत्पादव्ययवाळी पर्यायो छे ते सदा एकरूप नथी, तो ते उत्पाद व्यय सिवायनी ध्रुवरूप एवी कारणशुद्धपर्याय
अनादिअनंत पारिणामिकभावे जीवमां वर्ते छे. केवळज्ञानादि प्रगटे तेनी आ वात नथी पण त्रिकाळीनी आ
वात छे. संसार अने मोक्ष ए बंने पर्यायो अव्यवस्थित छे एटले के ते त्रिकाळ एकरूप नथी, संसार वखते
मोक्षपर्याय न होय, ने मोक्ष वखते संसारपर्याय न होय–ए रीते तेनो विरह छे, ज्यारे आ कारणशुद्धपर्याय तो
सदा एकरूप व्यवस्थित छे, द्रव्यमां त्रिकाळ अभेदरूप होवाथी तेनो कदी विरह नथी; ते उत्पाद–व्यय विनानी
ध्रुवपरिणति छे. धर्मास्तिकाय वगेरे चार द्रव्योमां तो उत्पाद–व्ययवाळी परिणति पारिणामिकभावे सदा एकरूप
छे, त्यारे जीवमां उत्पाद–व्यय विनानी ध्रुवपरिणति पारिणामिकभावे एकरूप छे. तेनी उत्पाद–व्ययरूप पर्यायमां
एकरूपता नथी पण विविधता छे. क्यारेक मिथ्यात्वादि संसारपर्याय, क्यारेक सम्यग्दर्शनादिक साधकदशा, ने
क्यारेक पूर्णशुद्धतारूप सिद्धदशा –एम खंडखंड छे पण एकरूपता नथी. ते खंड विनानी एकरूप ध्रुवपरिणति छे
तेने अहीं ‘शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम’ कह्या छे, ते सदा एकरूप पारिणामिकभावे छे.
मोक्षमार्गनी पर्यायने के क्रोधादि कषायोनी पर्यायने कोई वार पारिणामिकभावे कहेवाय तेमां तो जुदी
विवक्षा छे. क्रोधादिभावो कर्म नथी करावतुं पण जीव पोते करे छे एटले के जीवनुं पोतानुं ते परिणमन छे तेथी
तेने पारिणामिकभावे पण कहेवाय, छतां तेमां निमित्त तरीके तो कर्मना उदयादिनी अपेक्षा छे. ज्यारे आ
कारणशुद्धपर्यायमां तो निमित्त तरीके पण कर्मनी अपेक्षा नथी, ते तो कर्मना उदयादिनी अपेक्षा रहित सदा
पारिणामिकभावे वर्ते छे. औदयिकादि चारे भावो निमित्त–सापेक्ष छे, ने आ कारणशुद्धपर्याय तो
पारिणामिकभावनी निरपेक्षपरिणति छे.
धर्मास्तिकाय वगेरे चार द्रव्योना परिणमनमां ओछापणुं वधारेपणुं के विपरीतपणुं नथी, तेमां तो सदा
एकसरखापणुं ज छे. ते बधानो ज्ञाता तो आत्मा छे, ने आत्मामां संसार मोक्षमार्ग के मोक्ष ए कोई पर्याय
त्रिकाळ एकरूप नथी, तो ते सिवायनो सदा एकरूप भाव कयो छे जेना आश्रये एकाग्रता थई शके? ते अहीं
बताववुं छे. चारे द्रव्योना अखंड पारिणामिकभावने जाणनार तो आत्मा छे, तो आत्मामां पोतामां पण एक
ध्रुवपरिणति अनादिअनंत एकरूप शुद्ध पारिणामिकभावे वर्ते छे. द्रव्य–गुण ने कारणशुद्धपर्याय ए त्रणे
अखंडपणे द्रव्यार्थिकनयनो पूरो विषय छे. आ जैनदर्शननी मूळ वात छे, आना वगर द्रव्यनी वर्तमान अखंडता
सिद्ध थती नथी, द्रष्टिनो विषय वर्तमानमां पूरो थतो नथी. जीवनी पर्यायमां संसार के मोक्ष एवी विसद्रशता
होवा छतां, द्रव्य–गुण ने कारणशुद्धपर्यायनी एकरूपता कदी तूटती नथी. जैनदर्शन कहो के वस्तुदर्शन कहो तेनी
आ वात छे. आ अलौकिक वात छे. अहो! सनातन वीतरागमार्गना संत मुनिओए सर्वज्ञभगवानना पेटनां
रहस्य खोल्यां छे.