Atmadharma magazine - Ank 140
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २०० : आत्मधर्म : १४०
प्रश्न :– ‘कारणशुद्धपर्यायनी आवी स्पष्टता आ नियमसारमां ज केम आवी?’
उत्तर :– आ नियमसारमां मुख्यपणे मोक्षमार्गनुं ने मोक्षनुं कथन छे, ते बंने शुद्धपर्यायो छे तेथी ते
शुद्धपर्यायरूपी कार्यनी साथे तेना कारणरूप ‘कारणशुद्धपर्याय’नी वात आ नियमसारनी टीकामां स्पष्ट आवी छे.
नियमसार एटले नियमथी कर्तव्य; शुं कर्तव्य? के शुद्धरत्नत्रय ते कर्तव्य छे. ते शुद्ध कार्यना कारणरूप
‘कारणशुद्धपर्याय’ बतावीने टीकाकारे अद्भुत वात करी छे. द्रव्य साथे सदा अभेद एवी आ ‘कारणशुद्धपर्याय’ ते
निकटनुं कारण छे, ते कारणना अवलंबने मोक्षमार्गनुं शुद्धकार्य प्रगटे छे. ‘शुद्धकारण’ना मननथी ‘शुद्धकार्य’ प्रगटे छे.
टीकाकारे शरूआतना मंगलाचरणमां पांचमा श्लोकमां कह्युं हतुं के आ परमागमना अर्थसमूह गुणना
धरनार गणधरोथी रचायेला छे ने श्रुतधरोनी परंपराथी सारी रीते व्यक्त करायेला छे; एटले गणधरादि
गुरुओनी परंपराथी मने जे अर्थो मळ्‌या छे ते ज हुं कहीश.
वळी १००मी गाथानी टीकामां कहे छे के ‘साक्षात् शुद्धोपयोगनी सन्मुख जे हुं, परमागमरूपी पुष्परस
जेना मुखमांथी झरे छे एवो पद्मप्रभ, तेना शुद्धोपयोगमां पण ते परमात्मा रहेलो छे.’ टीकाकार मुनिराज कहे
छे के मारा मुखमांथी परमागमरूपी पुष्पनो रस झरे छे, एटले आ जे टीका रचाय छे ते परमागमनो नीचोड
छे, परमागमनो सार छे.
जुओ, आ रचना! आ कोई साधारण पुरुषनी रचना नथी, पण गणधरपरंपराथी आवेली ने छठ्ठा–सातमा
गुणस्थाने झूलता मुनिना अंर्तअनुभवमांथी नीकळेली अलौकिक रचना छे. पोते न समजी शके तेथी टीकाकारनो
दोष काढे ते तो महा मूढता अने स्वच्छंद छे. भाई! साधारण जीवोथी मुनिओनां हृदय उकेलवां मुश्केल छे.
अहीं ‘नियमसार’ एटले स्वभावरत्नत्रय, तेनी वात चाले छे.
स्वभावरत्नत्रय बे प्रकारे छे––
(१) कार्यरूप स्वभावरत्नत्रय,
(र) कारणरूप स्वभावरत्नत्रय;
(१) सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्गना जे रत्नत्रय छे ते कार्यरूप छे, तेने ‘कार्यनियम’ कहे छे;
अने (र) ते मोक्षमार्गना कारणरूप एवा कारणस्वभाव रत्नत्रय छे. ते त्रिकाळ छे, तेने ‘कारणनियम’ कहे छे.
केवो छे ते कारणनियम? सहज परमपारिणामिकभावे स्थित छे अने स्वभावअनंतचतुष्टयस्वरूप छे.
जुओ, आ कारण! मोक्षमार्गरूपी जे कार्य तेनुं आ कारण छे. कारणनियम कहो के कारण–शुद्धपर्याय
कहो,– बंने एक ज छे. ‘कारणशुद्धपर्याय’ने ‘पूजित पंचमभाव परिणति’ पण कहेशे; अहीं तेने
‘शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम’ कह्या छे. अहीं मात्र ‘शुद्धज्ञान’ अथवा ‘शुद्धज्ञानचेतना’ एम न कहेतां ‘परिणाम’
शब्द साथे मूकीने ‘शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम’ कह्या छे. ‘परिणाम’ कह्या छतां ते क्षणिक उत्पादव्ययरूप नथी पण
एकरूप पारिणामिकभावे छे; ते मोक्षमार्गरूप नथी पण तेना ध्रुव कारणरूप छे. कार्यस्वभावरत्नत्रयरूप
मोक्षमार्ग तो क्षायिक वगेरे भावे छे ने कारणस्वभावरत्नत्रयरूप जे आ ‘शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम’ ते तो सहज
पारिणामिकभावरूप छे.
• व्यवहार रत्नत्रयना जे रागादि विभाव छे ते तो मोक्षमार्ग नथी ने मोक्षमार्गनुं कारण पण नथी;
• आ कारणस्वभावरत्नत्रय ते मोक्षमार्ग नथी, परंतु मोक्षमार्गनुं कारण छे एटले तेने ‘कारणनियम’
कहेवाय छे
• कारणनियमना आश्रये जे शुद्धरत्नत्रयपर्याय प्रगटे ते मोक्षमार्ग छे, तेने कार्यनियम कहेवाय छे.
• मोक्षमार्गरूप जे कार्यनियम शुद्धरत्नत्रयपर्याय छे ते तो द्रव्यनो आश्रय करीने नवी ऊपजी छे. त्यारे
आ शुद्धज्ञानचेतनापरिणामरूप जे कारणनियम (अर्थात् कारणशुद्धपर्याय) छे ते कांई द्रव्यनो आश्रय करीने
नवो प्रगट्यो एम नथी, ते तो द्रव्यस्वभावमां परम पारिणामिकभावे सदाय स्थित ज छे. नवुं प्रगटवापणुं
तेमां नथी पण तेनुं भान करनार जीवने मोक्षमार्ग नवो प्रगटे छे. जगतमां तो मोक्षमार्ग अनादिअनंत चाली
ज रह्यो छे पण ते जीवने पोताने माटे मोक्षमार्गनी नवीन शरूआत थई छे.
जेम समुद्रमां पाणीना दळनी सपाटी एक सरखी होय छे तेम आत्मामां कारणशुद्धपर्याय सदा एक सरखी