अहीं सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे निश्चयरत्नत्रय तेने नियमथी कर्तव्य कह्युं; ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
परमात्मतत्त्व छे तेमां जोडाण करवुं एटले के ज्ञानने अंतर्मुख करीने ते परमतत्त्वने ज उपादेय करवुं ते
सम्यग्ज्ञान छे.
निकटताथी ज आ ज्ञान थाय छे. बीजी गाथामां कह्युं हतुं के आत्मानी मुक्तिनो मार्ग समस्त परद्रव्योथी अत्यंत
निरपेक्ष छे, शुद्धरत्नत्रयात्मकमार्ग परम निरपेक्ष छे. व्यवहार रत्नत्रय तो परना अवलंबने छे एटले निरपेक्ष
नथी तेथी ते खरेखर मार्ग नथी. मार्ग तो परम निरपेक्ष छे. सम्यग्दर्शन पण परम निरपेक्ष छे, सम्यग्ज्ञान पण
परम निरपेक्ष छे ने सम्यक्चारित्र पण परम निरपेक्ष छे. चोथा गुणस्थानना सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान पण
आवा ज छे.
स्वभावमां ज अंतर्मुखपणानी अस्ति छे. अंतरमां वळीने उपादेय स्वरूप एवो जे पोतानो परमस्वभाव, तेनुं
जयां अवलंबन लीधुं त्यां बीजा बधानुं अवलंबन छूटी गयुं छे. माटे कह्युं के, परद्रव्यने एटले के निमित्तने
रागने के व्यवहारने अवलंब्या वगर, उपयोगने एकदम अंतर्मुख करीने निज परमतत्त्वनुं जे यथार्थज्ञान थाय
छे ते सम्यग्ज्ञान छे आ सम्यग्ज्ञान पोताना शुद्ध परमात्मस्वभावने ज उपादेय जाणे छे. आ सम्यग्ज्ञान ते
पर्याय छे, कार्य छे, ते कार्य नवुं प्रगटे छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे मोक्षमार्ग छे तेनो आ एक अवयव
छे. मोक्षने माटे आवुं सम्यग्ज्ञान ते कर्तव्य छे.
व्याख्या! आत्माना आनंदनुं जन्मभूमिस्थान जे शुद्ध जीवास्तिकाय तेमांथी ज सम्यग्दर्शन ऊपजे छे, क्यांय
बहारना आश्रयथी सम्यग्दर्शन ऊपजतुं नथी. आ भगवान परमात्मा पोते अतीन्द्रिय सुखनो सागर छे, ते
परमात्मा सुखनो जे अभिलाषी छे एवा जीवने सम्यग्दर्शन थाय छे तेनी आ वात छे; सम्यग्दर्शन थतां ज तेने
आनंदना विलासनो जन्म थाय छे. ते आनंदनुं जन्मभूमिस्थान कयुं? के पोतानो शुद्ध जीवस्वभाव ज ते
आनंदनी उत्पत्तिनुं जन्मभूमिस्थान छे. आवा शुद्धआत्मानी परम श्रद्धा करवी ते सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन
थतां ज, भगवान सिद्ध परमात्माने जेवुं सुख छे तेवा ज सुखनो अंश समकीतीने पोताना वेदनमां ––स्वादमां
आवी जाय छे; अहो! मारा असंख्यप्रदेशे आनंदनो जन्म थयो!! मारा आत्माना असंख्यप्रदेशो आवा ज
आनंदथी भरपूर छे––आवी अंतर्मुख प्रतीत ते सम्यग्दर्शन छे.