Atmadharma magazine - Ank 141
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४८१ “आत्मधर्म” : २२१ :
ए धर्म निमित्तने नथी बतावतो केमके ते धर्म निमित्तनो नथी; ते धर्म तो धर्मी एवा आत्मद्रव्यने ज बतावे छे
के ‘आ धर्म आ आत्मानो छे’ . आ रीते नयनुं ध्येय पण शुद्धआत्माने ज लक्षमां लेवानुं छे; आ एकेय नयमां
पराश्रय कराववानुं ध्येय नथी.
आत्मा गुणग्राही छे–एम कह्युं तेनो अर्थ एवो नथी के ज्यां–त्यां परमांथी गुणग्रहण करवा. परमां
आत्मानो कोई गुण छे ज नहि. परमांथी मारा गुण आवशे–एम मानीने पर सामे ज जोया करे तो तेने कदी
सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगटे नहि. वळी केटलाक लोको एम कहे छे के ‘सामो जीव भले मिथ्याद्रष्टि के गमे तेवो
होय, पण आपणे कोईने खोटा न कहेवा, आपणे तो बधामांथी गुण ग्रहण करवा.’ –तो आनुं नाम कांई
गुणग्राहीपणुं नथी, ए तो चोकखो विनयमिथ्याद्रष्टि छे, साचा खोटानो पण तेने विवेक नथी. श्रीगुरुए जे रीते
कह्युं ते रीते समजीने पोताना स्वभावना अवलंबने सम्यग्दर्शनादि प्रगट करवा तेनुं नाम गुणग्राहीपणुं छे.
‘हे प्रभो! अमे कांई जाणता न हता, अमे बाळक हता, आपे सूक्ष्म चैतन्यतत्त्वनी केळवणी आपी–
आपीने अमारो उद्धार कर्यो, आपे ज अमने आत्मविद्या शीखवी’ –आम गुणीनयथी शिष्य कहे छे, पण ते
गुणने ग्रहण करवानो स्वभाव तो मारो छे–एम जो स्वाश्रयनी द्रष्टि राखीने कहे तो तेने गुणीनय साचो छे.
अहीं तो चारे पडखाथी स्वाश्रयनुं ज पोषण छे. अहो! यथार्थद्रष्टि राखीने कोईपण पडखेथी जुओ तो
आत्मामां केवळज्ञाननो कंद ऊभो थाय छे. आत्माने जोनारुं जे श्रुतज्ञान छे ते अनंतनयोवाळुं छे, तेमांथी
कोईपण नय वडे आत्माने जुओ तो आत्मा अनंतगुणनो पिंड शुद्धचैतन्यमूर्ति ज देखाय छे.
विनयी शिष्य गुणीनयथी एम कहे छे के हे प्रभो! अमे क्यां ऊभा हता ने हळवे हळवे उपाडीने आपे
अमने ठेठ क्यां लावी दीधा? अमारुं आखुं चक्र फेरवी नांख्युं? आप न मल्या होत तो अमे धर्म केम पामत?
दर्शनसारमां देवसेनाचार्ये पण कह्युं छे के “श्री सीमंधर स्वामी पासेथी मळेला दिव्य ज्ञान वडे श्री पद्मनंदीनाथे
अर्थात् श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?” आवा गुणीनय
वखते धर्मीने अंतरमां भान छे के गुणोनुं ग्रहण करे एवो धर्म तो मारो पोतानो छे. धर्मने जोनार नय ते
वर्तमान ज्ञान छे, वर्तमान द्वारा त्रिकाळीस्वभावने जोवो, धर्म द्वारा धर्मीने लक्षमां लेवो, ते नयनुं फळ छे. मूळ
ध्येय तो अखंडानंद धु्रव चैतन्यस्वरूप शुद्ध आत्मा छे, तेना ज अवलंबने सम्यग्दर्शन छे, तेना ज अवलंबने
सम्यग्ज्ञान छे, तेना ज अवलंबने सम्यक्चारित्र छे, तेना ज अवलंबने पूर्ण वीतरागता ने केवळज्ञान छे. गमे
ते नयथी गमे ते धर्मनुं वर्णन होय, पण आ मूळ ध्येयने लक्षमां राखीने ज बधी वात छे.
गुणीनयथी एम कह्युं के गुरु पासेथी गुणने ग्रहण करे एवो गुणग्राही–धर्म छे, –पण ते धर्म कोनो?
गुरुनो के आ आत्मानो? ते धर्म आ आत्मानो ज छे, एटले तेमां पण आत्मा साथे ज जोवानुं आव्युं. कथन
भले निमित्तथी होय, पण द्रष्टिमां तो शुद्धचैतन्यद्रव्यनो ज आश्रय धर्मीने होय छे. गुणीनयना द्रष्टांतमां शिक्षक
वडे कुमारने केळवणी आपवानुं कह्युं, पण ते केळवणी लेनार तो कुमार छे ने? कुमारमां ते ग्रहण करवानी
ताकात छे; तेम सिद्धांतमां पण समजवुं के–गुरु शिखवे छे ने शिष्य ते प्रमाणे गुणनुं ग्रहण करे छे, त्यां गुणनुं
ग्रहण करवानो धर्म शिष्यनो छे. शिष्य ज पोतानी ताकातथी गुरुनो उपदेश झीलीने गुणनुं ग्रहण करे छे. कोई
पण नयथी आत्माना धर्मने जुए तो त्यां एक धर्मने जुदो पाडीने जोवानुं ध्येय नथी पण शुद्धचैतन्यस्वरूप
निज आत्मा देखाय छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी जेवी केळवणी श्रीगुरु आपे तेवुं शीखीने ग्रहण करे एवो आत्मानो एक
धर्म छे; ते धर्म जोनारने पण धर्मी एवा आत्मद्रव्यनी सन्मुख जोवानुं रहे छे. निमित्तनुं भेद ज्ञान कराव्युं छे
पण ते धर्म तो आत्मानो पोतानो ज छे.
विकल्प वखते गुणीनयथी शिष्य एम कहे छे के आ गुरु पासेथी गुणग्रहण कर्या. हवे आवा विकल्प
वखते पण ते विकल्पने के निमित्तने ग्रहण करतो नथी, पण ते वखतेय विकल्प अने निमित्त बंनेना साक्षीपणे
रहेवानो धर्म जीवमां छे, तेनुं वर्णन हवे ‘अगुणीनय’ थी कहे छे.
–३६मा गुणीनयथी आत्मानुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.