के ‘आ धर्म आ आत्मानो छे’ . आ रीते नयनुं ध्येय पण शुद्धआत्माने ज लक्षमां लेवानुं छे; आ एकेय नयमां
पराश्रय कराववानुं ध्येय नथी.
सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगटे नहि. वळी केटलाक लोको एम कहे छे के ‘सामो जीव भले मिथ्याद्रष्टि के गमे तेवो
होय, पण आपणे कोईने खोटा न कहेवा, आपणे तो बधामांथी गुण ग्रहण करवा.’ –तो आनुं नाम कांई
गुणग्राहीपणुं नथी, ए तो चोकखो विनयमिथ्याद्रष्टि छे, साचा खोटानो पण तेने विवेक नथी. श्रीगुरुए जे रीते
कह्युं ते रीते समजीने पोताना स्वभावना अवलंबने सम्यग्दर्शनादि प्रगट करवा तेनुं नाम गुणग्राहीपणुं छे.
गुणने ग्रहण करवानो स्वभाव तो मारो छे–एम जो स्वाश्रयनी द्रष्टि राखीने कहे तो तेने गुणीनय साचो छे.
अहीं तो चारे पडखाथी स्वाश्रयनुं ज पोषण छे. अहो! यथार्थद्रष्टि राखीने कोईपण पडखेथी जुओ तो
आत्मामां केवळज्ञाननो कंद ऊभो थाय छे. आत्माने जोनारुं जे श्रुतज्ञान छे ते अनंतनयोवाळुं छे, तेमांथी
कोईपण नय वडे आत्माने जुओ तो आत्मा अनंतगुणनो पिंड शुद्धचैतन्यमूर्ति ज देखाय छे.
दर्शनसारमां देवसेनाचार्ये पण कह्युं छे के “श्री सीमंधर स्वामी पासेथी मळेला दिव्य ज्ञान वडे श्री पद्मनंदीनाथे
अर्थात् श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?” आवा गुणीनय
वखते धर्मीने अंतरमां भान छे के गुणोनुं ग्रहण करे एवो धर्म तो मारो पोतानो छे. धर्मने जोनार नय ते
वर्तमान ज्ञान छे, वर्तमान द्वारा त्रिकाळीस्वभावने जोवो, धर्म द्वारा धर्मीने लक्षमां लेवो, ते नयनुं फळ छे. मूळ
ध्येय तो अखंडानंद धु्रव चैतन्यस्वरूप शुद्ध आत्मा छे, तेना ज अवलंबने सम्यग्दर्शन छे, तेना ज अवलंबने
सम्यग्ज्ञान छे, तेना ज अवलंबने सम्यक्चारित्र छे, तेना ज अवलंबने पूर्ण वीतरागता ने केवळज्ञान छे. गमे
ते नयथी गमे ते धर्मनुं वर्णन होय, पण आ मूळ ध्येयने लक्षमां राखीने ज बधी वात छे.
भले निमित्तथी होय, पण द्रष्टिमां तो शुद्धचैतन्यद्रव्यनो ज आश्रय धर्मीने होय छे. गुणीनयना द्रष्टांतमां शिक्षक
वडे कुमारने केळवणी आपवानुं कह्युं, पण ते केळवणी लेनार तो कुमार छे ने? कुमारमां ते ग्रहण करवानी
ताकात छे; तेम सिद्धांतमां पण समजवुं के–गुरु शिखवे छे ने शिष्य ते प्रमाणे गुणनुं ग्रहण करे छे, त्यां गुणनुं
ग्रहण करवानो धर्म शिष्यनो छे. शिष्य ज पोतानी ताकातथी गुरुनो उपदेश झीलीने गुणनुं ग्रहण करे छे. कोई
पण नयथी आत्माना धर्मने जुए तो त्यां एक धर्मने जुदो पाडीने जोवानुं ध्येय नथी पण शुद्धचैतन्यस्वरूप
निज आत्मा देखाय छे.
पण ते धर्म तो आत्मानो पोतानो ज छे.
रहेवानो धर्म जीवमां छे, तेनुं वर्णन हवे ‘अगुणीनय’ थी कहे छे.