Atmadharma magazine - Ank 141
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २२२ : “आत्मधर्म” : अषाढ : २४८१
(३७) अगुणीनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य अगुणीनये केवळ साक्षी ज छे, –शिक्षक वडे जेने केळवणी आपवामां आवे छे एवो जे कुमार
तेने जोनार पुरुषनी माफक.
अहीं ‘अगुणीनय’ कह्यो ते दोषसूचक नथी पण आत्माना साक्षीपणानो सूचक छे. गुरु पासेथी ज्ञान
लउं–एवो निमित्त तरफनो विकल्प आवे, पण ते विकल्प ज करे एवो आत्मानो स्वभाव नथी, विकल्प अने
वाणी बंनेना साक्षीपणे रहेवानो आत्मानो धर्म छे. भगवान के संतोनी वाणी झीलीने आत्मा गुण ग्रहण करे
छे–एम कहेनार गुणीनय पण आत्माने ज बतावे छे; अने आत्मा कोई बीजा पासेथी शीखतो नथी, आत्मा
तो साक्षीपणे जोनार ज छे–एम कहेनार आ अगुणीनय पण आत्माने ज बतावे छे. त्रिलोकनाथ तीर्थंकर
भगवाननी दिव्यवाणी छूटे ने ते झीलीने पात्र जीवो सम्यग्दर्शनादि पामी जाय, गणधरदेव बार अंगनी रचना
करे. त्यां शुं आत्माए परमांथी गुणग्रहण कर्या? –ना; ते वखते पण साक्षी रहेवानो आत्मानो स्वभाव छे.
दिव्यध्वनिनो पण साक्षी, गुरुना उपदेशनो पण साक्षी, ते वखते विकल्प वर्ततो होय तेनो पण साक्षी–आवो
आत्मानो धर्म छे. क्यांय परमांथी गुण मळशे–एम धर्मी मानतो नथी अने परने माटे ते विकल्प उठावतो
नथी. विकल्प वखतेय पोताना साक्षी स्वभावनी तेने प्रतीत छे. साक्षीपणुं अने गुणग्राहीपणुं बंने धर्मो
आत्मामां एक साथे छे. सम्यक् नयनी विवक्षाथी जोतां परस्पर विरुद्ध धर्मोने साथे रहेवामां कांई विरोध
आवतो नथी, पण यथार्थ वस्तुस्वरूप सिद्ध थाय छे. नयोनी विवक्षा ते मूंझवण थवानुं कारण नथी पण मूंझवण
मटाडीने ज्ञाननी स्पष्टतानुं कारण छे.
* अनंत धर्मो स्वरूप आत्मद्रव्य छे;
* अनंत नयो स्वरूप श्रुतज्ञानप्रमाण छे;
* ते श्रुतज्ञानप्रमाणथी स्वानुभव वडे आत्मद्रव्य प्रमेय थाय छे.
* अनंतधर्मोने जाणनारा अनंतनयो छे.
* चैतन्यमूर्ति आत्मद्रव्य ओळखाववा माटे अहीं केटलाक नयोथी तेना धर्मोनुं वर्णन कर्युं छे.
* तेमां आ ३७मा ‘अगुणीनय’ थी आत्माना साक्षी धर्मनुं वर्णन चाली रह्युं छे.
जेम शिक्षक वडे कुमारने केळवणी अपाती होय अने ते वखते बीजो माणस त्यां ऊभो ऊभो जोतो होय,
तेमां कुमार तो शिक्षा ग्रहण करनार छे ने बीजो माणस तो तेनो साक्षी ज छे. कुमारने आवडे तो होंस थाय ने
न आवडे तो मूंझवण थाय, पण जे मध्यस्थपणे जोनारो छे ते तो साक्षी ज छे. तेम चैतन्यमूर्ति आत्मा
साक्षीपणे जाणनार छे. विकल्प ऊठतां गुरु वगेरे निमित्त उपर लक्ष जाय छे त्यारे गुणग्राही कह्यो, –एवो एम
धर्म छे, अने विकल्प रहित मात्र साक्षीपणे रहे–शुद्धज्ञान–चेतनापणे रहे एवो साक्षीस्वभाव पण आत्मामां छे.
‘गुणग्राही’ मां जराक विकल्प छे ने साक्षीपणामां विकल्प नथी. वाणीनो साक्षी, विकल्पनो साक्षी, आखा
जगतनो साक्षी एवो आत्मानो स्वभाव छे.
(१) अहीं जे साक्षीपणुं कह्युं छे ते गुणग्राहीपणानी सामे कह्युं छे.
(२) हवे ३९मा नयमां साक्षीपणुं कहेशे ते रागना कर्तृत्वनी सामेनुं साक्षीपणुं कहेशे.
(३) ४१मा नयमां हर्ष–शोकना भोक्ता सामेनुं साक्षीपणुं कहेशे.
–ए रीते त्रण प्रकारे आत्मानुं साक्षीपणुं कहेशे.
जुओ, आत्मानो साक्षीस्वभाव! निमित्तनो साक्षी, कर्मना उदयनो साक्षी, घोर उपसर्ग देह उपर आवी
पडे तेनोय साक्षी, अल्प राग के द्वेष थाय तेनो पण साक्षी, –आम आखा जगतनो साक्षीस्वभाव छे, जगतमां
क्यांय ऊथलपाथल करवानो स्वभाव नथी. रागनी पर्यायनो क्रम फेरवी नांखुं–ए वात पण साक्षीपणामां रहेती
नथी. अहो! आवा साक्षीस्वभावने स्वीकारीने, साक्षीपणे जेम छे तेम जो; क्यांय फेरफार थवानो नथी; फेरफार
करवानो तुं अभिप्राय करीश तो तारुं ज्ञान मिथ्या थशे. परमां तो ताराथी फेरफार न थाय, पण तारी पर्यायमां
फेरफार करीने आघीपाछी करवानुं पण बनतुं नथी, केमके जे पर्याय थई छे ते फरे नहि, अने जे पर्याय थई ज
नथी तेमां पण फेरफार करवानुं बनतुं