Atmadharma magazine - Ank 141
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २२४ : “आत्मधर्म” : अषाढ : २४८१
बीजी अवस्थापणे बदली जाय छे. सिद्धना आत्माने पण आनंदनो अनुभव समये समये बदल्या करे छे;
आनंद भले एवो ने एवो ज रहे छे, पण पहेलां समयनो जे आनंद हतो ते ज बीजा समये नथी रहेतो, बीजा
समये आनंदनी नवी अवस्थानो उत्पाद थाय छे, ने पहेली अवस्थानो व्यय थाय छे, तथा आनंद गुणनी तो
सळंगपणे धु्रवता रहे छे. आ रीते पर्याय उत्पादव्ययथी क्रमवर्ती छे, ने गुणो धु्रवपणे अक्रमवर्ती छे. आवो
वस्तुनो स्वभाव छे.
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’ एवुं सूत्रनुं वचन छे, एटले के दरेक वस्तु उत्पाद–व्यय–धु्रवता सहित छे.
दरेक समये नवी पर्यायनी उत्पत्ति, जुनी पर्यायनो नाश, अने द्रव्य–गुणनुं टकवापणुं बधी वस्तुओमां होय छे.
तेमां उत्पाद–व्ययरूप पर्यायो क्रमवर्ती छे, एक साथे बधी पर्यायो नथी वर्तती, पण एक पछी एक वर्ते छे; ने
धु्रवरूप गुणो अक्रमवर्ती छे, बधा गुणो त्रणे काळ एक साथे ज वर्ते छे.
जुओ, आ वस्तुस्वरूप! पोताना उत्पाद–व्यय–धु्रव पोताथी ज छे. आत्मा पोते पोताना स्वभावथी ज
एक अवस्था बदलीने बीजी अवस्थारूपे थाय छे. आ वात समजे तो, मारी अवस्था बीजो कोई पलटावी देशे–
एवी पराश्रयबुद्धि छूटी जाय, ने पोतामां धु्रवस्वभाव तरफ वलण थई जाय; धु्रव साथे पर्यायनी एकता थतां
निर्मळ पर्यायरूप मोक्षमार्ग प्रगटे छे.
जे समये अपूर्व सिद्धदशानो उत्पाद, ते ज समये संसारदशानो व्यय, ने आत्मद्रव्यनी धु्रवता; जे समये
सम्यग्दर्शननो उत्पाद, ते ज समये मिथ्यात्वदशानो व्यय, ने श्रद्धागुणनी धु्रवता; आम एक ज समयमां उत्पाद–
व्यय–धु्रवपणुं छे. आवुं उत्पाद–व्यय–धु्रवपणुं वस्तुमां त्रिकाळ छे, पण ज्यारे तेनुं भान करीने स्वाश्रये परिणमे
त्यारे निर्मळतानो उत्पाद ने मलिनतानो व्यय थाय छे.
आत्माना उत्पाद–व्यय–पोताथी ज छे, माटे विकार पण पोताथी ज थाय छे;–ए तो खरुं. पण पोतानी
पर्यायमां जेणे एकला विकारनी ज उत्पत्ति भासे छे तेणे आत्माना स्वभावने खरेखर जाण्यो ज नथी. ‘मारा
उत्पाद–व्यय–धु्रव माराथी ज छे’ एम जेणे नक्की कर्युं–तेणे कोनी सामे जोईने ते नक्की कर्युं? मारा स्वभावथी ज
मारा उत्पाद–व्यय–धु्रव छे–एम नक्की करनारनी द्रष्टि तो पोताना स्वभाव उपर आवी, एटले एकला विकारनी
उत्पत्ति तेने रहे ज नहि, तेने तो स्वभावद्रष्टिमां निर्मळ पर्याय प्रगटीने साधकदशा शरू थई जाय. जेने आवी
साधकदशा थाय तेने ज पर्यायना विकारनुं यथार्थ ज्ञान थाय. आ मूळभूत न्याय छे.
पोताना कारणे क्रमबद्ध ‘विकार’ थाय छे–एम एकला विकार उपर द्रष्टिवाळाने खरेखर क्रमबद्धपर्यायनी
के उत्पाद–व्यय–धु्रवत्त्वशक्तिनी प्रतीत नथी; केमके जो शक्तिनी प्रतीत थाय तो शक्तिवानना अवलंबने निर्मळ
परिणमन शरू थया विना रहे नहि. त्रिकाळी गुणी साथे अभेद थईने पर्यायनुं परिणमन थाय ते धर्म छे.
‘सर्वज्ञ भगवाने क्रमबद्धपर्यायमां जोयुं छे माटे मारामां मिथ्यात्वादि विकार थाय छे’ –एम एकला
विकारना क्रमने ज देखनारनी द्रष्टि घणी ऊंधी छे. आचार्यदेव कहे छे के अरे मूढ! तुं सर्वज्ञनुं नाम न ले, तें
सर्वज्ञदेवने मान्या ज नथी. तुं सर्वज्ञने नथी देखतो पण एकला विकारने ज देखे छे, क्रमबद्धपर्यायनी पण तने
खबर नथी. सर्वज्ञदेवने प्रतीतमां ल्ये तेने तो पोतामां साधकदशानो क्रम शरू थई जाय, एकलो विकारनो क्रम
तेने रहे ज नहि. जेने स्वभावना आश्रये अमुक निर्मळ परिणमन थयुं छे ने बाकी अल्प विकार रह्यो छे–एवा
साधक जीवनी आ वात छे. तेने ज पोताना क्रम–अक्रमस्वभावनी (–उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप स्वभावनी) तेम ज
सर्वज्ञदेवनी खरी प्रतीत थई छे. एकला विकारना वेगे तणातो आत्मा स्वभावशक्तिनी प्रतीत क्यांथी करे?
विकारना प्रवाहमां तणाई रह्यो छे ते जीव कोना आधारे स्वभावनी प्रतीत करशे? ने कोना आधारे सर्वज्ञने
मानशे? स्वभाव तरफ वळेलो जीव विकारने पण जेम छे तेम जाणशे, ने ते ज सर्वज्ञताने यथार्थपणे मानशे.
(१) जे प्रमाणे कर्मनो उदय आवे ते प्रमाणे विकार थाय एम माननारनी मान्यता घणी ऊंधी छे.
(२) बीजा कोई एम कहे के सर्वज्ञभगवाने आपणी पर्यायमां विकार थवानुं ज जोयुं छे माटे विकार
थाय छे, –तो तेनी द्रष्टि पण ऊंधी छे.