Atmadharma magazine - Ank 141
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४८१ “आत्मधर्म” : २२५ :
(३) त्रीजो कोई एम कहे के पर्यायनो क्रमबद्ध थवानो स्वभाव छे माटे विकार थाय छे, तो तेनी द्रष्टि
पण विपरीत छे, खरेखर क्रमस्वभावने तेणे जाण्यो ज नथी. एकला विकारनो ज क्रम जेने वर्ते छे तेणे खरेखर
क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा थई ज नथी.
(४) चोथो कोई एम कहे के विकार थाय छे तेटलो ज आत्मा छे, अथवा शुभराग ते धर्मनुं कारण छे, –
तो तेनी मान्यता पण ऊंधी ज छे.
(प) उत्पाद–व्यय–धु्रवत्त्व शक्ति, वगेरे अनंत शक्तिनो पिंड मारो आत्मा छे, –एम अनंतगुणना
पिंडरूप ज्ञान–स्वभावनी द्रष्टि करतां, गुणोमां अक्रमपणुं ने पर्यायमां निर्मळक्रम–एवा आत्मानो अनुभव थयो,
अने तेने ज शक्तिओनुं खरुं परिणमन थयुं, तेणे ज सर्वज्ञदेवने खरेखर जाण्या, तेने ज क्रमबद्धपर्यायनुं भान
थयुं, ते कर्मथी विकार थवानुं माने नहि, ने विकारथी लाभ माने नहि. द्रष्टिमां ज्ञानानंदस्वभावनी मुख्यता
राखीने, अस्थिरतानो जे अल्प विकार छे तेने ज्ञेयपणे जेम छे तेम ते ज्ञाता जाणे छे.
पर्याय अंतरमां वळीने, त्रिकाळी द्रव्य–गुण साथे अभेद थईने परिणमी त्यारे ज ‘आत्मा’ ने खरेखर
मान्यो छे, ने त्यारे ज आत्मानी प्रसिद्धि थई छे. उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप अथवा गुण–पर्यायरूप स्वभाव छे तेनी
खरी प्रतीत क्यारे थई कहेवाय? –के गुणीना अवलंबने निर्मळ पर्याय प्रगट करे त्यारे. जे एकला विकारने ज
देखे छे ने विकारमां ज तन्मय थईने परिणमे छे तेणे अनंत–शक्तिवाळा आत्माने खरेखर मान्यो नथी. जो
अनंत शक्तिवाळा आत्माने माने तो तेना आश्रये सम्यग्दर्शनादि निर्मळपरिणमन थया वगर रहे नहि.
कोईपण शक्तिनी प्रतीत धु्रवस्वभावना आश्रये ज थाय छे. अभेद आत्मस्वभावनो आश्रय लीधा वगर तेनी
एक पण शक्तिनी खरी ओळखाण थती नथी.
आत्माना अनंत स्वभावोमांथी एक उत्पाद–व्यय–धु्रवत्वस्वभाव छे, तेनुं आ वर्णन चाले छे. आत्मा
वस्तुपणे कायम रहीने, समये समये तेमां नवी नवी अवस्था थया ज करे–एवो तेनो स्वभाव छे. ते अवस्था,
जो पोताना स्वभाव साथे एकता करीने परिणमे तो निर्मळ थाय छे, ने जो पर साथे एकता मानीने परिणमे
तो मलिन थाय छे.
अहीं तो उत्पाद–व्ययरूप पर्यायने क्रमवर्ती कीधी छे तेमांथी ‘क्रमबद्धपर्याय’ नी वात काढवी छे. आ
क्रमबद्धपर्यायरूप स्वभावना निर्णयमां विकारनी वात नथी पण निर्मळ पर्यायनी ज मुख्य वात छे. छतां एनो
अर्थ एम नथी के विकारपर्याय आडीअवडी थई जाय छे! परंतु क्रमबद्धस्वभावनो निर्णय करनारनी द्रष्टि
ज्ञायकस्वभाव उपर होय छे एटले ते द्रष्टि विकारने स्वीकारती नथी, तेथी निर्मळपर्यायनी ज मुख्यता छे.
एक समयमां उत्पाद–व्यय–धु्रवता ए तो जैनशासननी मूळ वात छे, उत्पाद–व्यय ने धु्रवता त्रणे एक
समयमां, आवा वस्तुस्वभावनी प्रतीत करे तो वीतरागीद्रष्टि थई जाय. जेम रवि–सोम–मंगळ ए बधा वार
एक पछी एक क्रमसर थाय छे, तेम पर्यायो क्रमसर थाय छे. पहेलां समयनी अवस्था बीजा समये रहेती नथी
पण व्यय पामी जाय छे; कोई जीव पर्यायने बीजा समये राखवा मांगे तो पण रही शके नहि, एवो ज स्वभाव
छे. माटे शुं करवुं? के धु्रव स्वभाव कायमी शुद्ध एवो ने एवो टकतो छे, तेनी सामे जो, अने तेमां द्रष्टिनी
एकाग्रता कर, तो ते धु्रवना आधारे पर्यायनो निर्मळ पलटो थई जशे. त्यांय समये समये पलटो तो थशे पण
ते पर्यायो निर्मळ ज्ञान–आनंदस्वरूप थती जशे.
एक समयनी पर्याय बीजा समये न रहे, बीजा समये नवी पर्याय थाय–एवो उत्पाद–व्यय–स्वभाव छे.
ने द्रव्यनो कदी नाश न थाय एवो धु्रवस्वभाव छे. उत्पाद–व्यय ने धु्रव ए जुदा जुदा नथी पण एक ज वस्तुनो
तेवो स्वभाव छे. ज्ञानी के अज्ञानी बधा आत्माने उत्पाद–व्यय–धु्रव तो समये समये वर्ते ज छे, पण तेमां फेर
एटलो छे के ज्ञानीने तो स्वभावनी द्रष्टिथी निर्मळ पर्यायोनी उत्पत्ति थती जाय छे, ने अज्ञानीने विकारमां ज
आत्मबुद्धि होवाथी विकारी पर्यायोनी उत्पत्ति थाय छे. बस, आ ज धर्म–अधर्म छे, मोक्षमार्ग ने संसारमार्ग
आमां आवी जाय छे.