क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा थई ज नथी.
अने तेने ज शक्तिओनुं खरुं परिणमन थयुं, तेणे ज सर्वज्ञदेवने खरेखर जाण्या, तेने ज क्रमबद्धपर्यायनुं भान
थयुं, ते कर्मथी विकार थवानुं माने नहि, ने विकारथी लाभ माने नहि. द्रष्टिमां ज्ञानानंदस्वभावनी मुख्यता
राखीने, अस्थिरतानो जे अल्प विकार छे तेने ज्ञेयपणे जेम छे तेम ते ज्ञाता जाणे छे.
खरी प्रतीत क्यारे थई कहेवाय? –के गुणीना अवलंबने निर्मळ पर्याय प्रगट करे त्यारे. जे एकला विकारने ज
देखे छे ने विकारमां ज तन्मय थईने परिणमे छे तेणे अनंत–शक्तिवाळा आत्माने खरेखर मान्यो नथी. जो
अनंत शक्तिवाळा आत्माने माने तो तेना आश्रये सम्यग्दर्शनादि निर्मळपरिणमन थया वगर रहे नहि.
कोईपण शक्तिनी प्रतीत धु्रवस्वभावना आश्रये ज थाय छे. अभेद आत्मस्वभावनो आश्रय लीधा वगर तेनी
एक पण शक्तिनी खरी ओळखाण थती नथी.
जो पोताना स्वभाव साथे एकता करीने परिणमे तो निर्मळ थाय छे, ने जो पर साथे एकता मानीने परिणमे
तो मलिन थाय छे.
अर्थ एम नथी के विकारपर्याय आडीअवडी थई जाय छे! परंतु क्रमबद्धस्वभावनो निर्णय करनारनी द्रष्टि
ज्ञायकस्वभाव उपर होय छे एटले ते द्रष्टि विकारने स्वीकारती नथी, तेथी निर्मळपर्यायनी ज मुख्यता छे.
एक पछी एक क्रमसर थाय छे, तेम पर्यायो क्रमसर थाय छे. पहेलां समयनी अवस्था बीजा समये रहेती नथी
पण व्यय पामी जाय छे; कोई जीव पर्यायने बीजा समये राखवा मांगे तो पण रही शके नहि, एवो ज स्वभाव
छे. माटे शुं करवुं? के धु्रव स्वभाव कायमी शुद्ध एवो ने एवो टकतो छे, तेनी सामे जो, अने तेमां द्रष्टिनी
एकाग्रता कर, तो ते धु्रवना आधारे पर्यायनो निर्मळ पलटो थई जशे. त्यांय समये समये पलटो तो थशे पण
ते पर्यायो निर्मळ ज्ञान–आनंदस्वरूप थती जशे.
तेवो स्वभाव छे. ज्ञानी के अज्ञानी बधा आत्माने उत्पाद–व्यय–धु्रव तो समये समये वर्ते ज छे, पण तेमां फेर
एटलो छे के ज्ञानीने तो स्वभावनी द्रष्टिथी निर्मळ पर्यायोनी उत्पत्ति थती जाय छे, ने अज्ञानीने विकारमां ज
आत्मबुद्धि होवाथी विकारी पर्यायोनी उत्पत्ति थाय छे. बस, आ ज धर्म–अधर्म छे, मोक्षमार्ग ने संसारमार्ग
आमां आवी जाय छे.