मिथ्यात्वनो उत्पाद रहे ज नहि.
करे छे. एटले निमित्त आवे तो पर्याय थाय ने निमित्त न आवे तो न थाय–ए वात रहेती नथी. आवा
स्वभावनी श्रद्धा थतां ज्ञाताद्रष्टापणानो वीतरागभाग प्रगटे छे, पर्यायना क्रमने फेरववानी के रागना
कर्तापणानी बुद्धि रहेती नथी. उत्पाद–व्यय–धु्रवत्वशक्तिमां क्रम–अक्रमपणुं आवे छे, ते क्रम–अक्रमपणानी प्रतीत
एकली पर्यायने जोवाथी थई शके नहि, अनंतशक्तिवाळा स्वभाव सामे जोवाथी ज क्रम–अक्रमपणानी प्रतीत
थाय छे, ने एवी प्रतीत करनारने पर्यायबुद्धि रहेती नथी. आ रीते पर्यायबुद्धिनो नाश ने स्वभावबुद्धिनी
उत्पत्ति ते आ शक्तिओनी समजणनुं फळ छे.
भिन्न छे. मन–वाणी–देह–लक्ष्मी वगेरेना उत्पाद–व्ययनो आत्मामां अभाव छे, ते जडना उत्पाद–व्यय
आत्माथी जुदा छे, एटले तेनाथी आत्मामां कांई थतुं नथी, ने आत्मा तेनुं कांई करतो नथी. शरीर–लक्ष्मी
वगेरे जडनो सदुपयोग करीने हुं धर्म पामुं–ए वात पण रहेती नथी. कोई एम विचारे के ससलानां शींगडामां
हुं सुंदर कारीगरी करुं! –तो ते तेनी भ्रमणा छे, केमके ससलाना शींगडांनो अभाव छे. जेम ससलामां
शींगडांनो अभाव छे तेम आत्मामां देहादि जडनो अभाव छे, एटले ते देहादिना सदुपयोग वडे धर्म करुं–ए
पण अज्ञानीनी भ्रमणा ज छे.
क्रियानुं अभिमान करीने, पोताना अनंतगुणोनो अनादर करतो थको अनादिथी विकारमां ज वर्ते छे, तेमां
आत्मानी प्रसिद्धि नथी. पोताना गुण–पर्यायमां अभेद थईने वर्ते ते आत्मा छे. आत्मा ने तेना गुण–पर्याय
वच्चे खरेखर भेद नथी, अनादिथी पोताना गुण–पर्यायमां उत्पाद–व्यय–धु्रवपणे आत्मा वर्ती ज रह्यो छे, पण
अज्ञानी तेनी सामे जोतो नथी तेथी विकारपणे परिणमे छे. पोताना स्वभाव सन्मुख थईने निर्मळदशारूपे
परिणमवुं ने मलिनतानो नाश करवो तथा धु्रवपणे टकी रहेवुं–ते आत्मानी फरज छे, फरज कहो के मोक्षनो
उपाय कहो, अज्ञानी आवी फरज चूकीने विकारपणे परिणमे छे, पण परमां तो कंई पण फरज ते पण बजावी
शकतो नथी. वस्तुना उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वभावने बराबर समजे तो बधा गोटा नीकळी जाय. वस्तुना
स्वभावना स्वीकार वगर कोई रीते धर्म थाय नहि ने मिथ्यात्वादि पाप मटे नहि.
ते बहुज हळवा छे, अनंतगुणना आदर पासे तेनी कांई गणतरी नथी; अने अज्ञानी जीव आत्मस्वभावना
अनंतगुणनो अनादर करीने क्षणिक विकारनो आदर करे छे ते जीव पुण्य परिणाम करतो होय तोपण ते
वखतेय धर्मना अनादरनुं अनंतुं पाप ते सेवी ज रह्यो छे. मूळ धर्म शुं छे ने मूळ पाप शुं छे ते समज्या वगर
जीवोनो मोटो भाग पुण्यमां के बहारनी क्रियामां ज धर्म मानीने अटकी रह्यो छे. अहीं आचार्यदेव समजावे छे के
भाई! अनंतगुणनो आधार एवो तारो आत्मस्वभाव छे तेनो आदर करवो ते ज मूळ धर्म छे, ने ते
स्वभावनो अनादर ए ज महान पाप छे. स्वभावना आधारे विकार टळे छे तेने बदले विकारना आधारे
विकारने टाळवा मांगे छे ते मिथ्याद्रष्टि जीव पोताना स्वभावनो तिरस्कार करी रह्यो छे.