Atmadharma magazine - Ank 141
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४८१ “आत्मधर्म” : २२७ :
ने आत्माने ते क्रियाथी धर्म थतो नथी.
पुण्यपापना उत्पाद–व्ययरूप क्रिया जीवनी पर्यायमां थाय छे, पण ते विकारी क्रिया छे, ते पण जीवने
हितनुं कारण नथी, तेना लक्षे हित थतुं नथी.
जीवनी पर्यायमां निर्मळताना उत्पादरूप क्रिया थाय ते धर्म छे; पण ते निर्मळतानी उत्पत्ति कोना लक्षे
थाय? पर्यायनी सामे लक्ष राखवाथी तो विकारनी उत्पत्ति थाय छे, निर्मळपर्यायना लक्षे पण निर्मळतानी
उत्पत्ति थती नथी, माटे पर्यायनुं लक्ष पण हितनुं कारण नथी. पूर्ण शक्तिथी भरेलो धु्रवस्वभाव छे तेना लक्षे ज
सम्यग्दर्शनादि निर्मळपर्याय प्रगटे छे ने ते ज हितरूप छे. अहीं आचार्य भगवान आत्मानी शक्तिओ बतावीने
तेनो ज आश्रय कराववा मांगे छे.
आत्मानो एक एवो स्वभाव छे के क्रम–अक्रमपणे वर्ते. गुणो बधाय अनादिअनंत एक साथे अक्रम
रहेला छे, ने अनादिअनंतकाळनी पर्यायो क्रमवर्तीपणे गोठवायेली छे, ते पोताना व्यवस्थितक्रमपणे एक पछी
एक वर्ते छे, एवो क्रमवर्ती स्वभाव छे. आवा स्वभावने मानतां एकेक पर्याय के एकेक गुण उपरथी द्रष्टि
छूटीने, अनंत गुणना पिंडरूप अखंड स्वभाव उपर द्रष्टि थंभे छे, ने ते द्रष्टिमां क्रमे क्रमे निर्मळ पर्यायोनी
उत्पत्ति थाय छे. –आनुं नाम साधकदशा ने आ मोक्षनो मार्ग!
पोताना आवा स्वभावनुं यथार्थ श्रवण करीने तेनुं ग्रहण अने धारण पूर्वे अनंतकाळमां एक सेकंड पण
जीवे कर्युं नथी. एकवार पण ज्ञानी पासेथी आवा स्वभावनी वात सांभळतां अंतरना उल्लासथी तेनी पक्कड
थई जाय तो अल्पकाळमां ते जीवनी मुक्ति थया वगर रहे नहि. ‘मारो स्वभाव शुं छे’ एम लक्ष करीने जीवे
कदी साचुं श्रवण कर्युं नथी. पूर्वे कोईवार सांभळवा मळ्‌युं अने धारणा पण करी पण आत्मामां ते रुचव्युं नथी,
–पोताना घरनुं करीने बेसाडयुं नथी.
जुओ, आ आत्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु अनादि अनंत छे; तेना ज्ञानादि गुणो नवा करायेला छे के
अकृत्रिम छे? जो नवा करायेला होय तो ते क्षणिक होय ने तेनो नाश थई जाय, एटले आत्मानो ज नाश थई
जाय. –पण एम कदी बनतुं नथी. ‘पर्याय’ नवी उत्पन्न थाय छे ने तेनो नाश थाय छे. पण गुण कदी नवा
उत्पन्न थता नथी तेमज तेनो कदी नाश थतो नथी. गुणो तो वस्तुनिष्ठ छे, वस्तुमां अनादिअनंत वसेला छे.
वस्तु के तेना गुणो नवा न थाय पण तेनी अवस्था नवी उत्पन्न थाय, तेमज वस्तु के तेना गुणोनो नाश न
थाय पण तेना पर्यायोनो नाश थाय. जेमके जीवमां सिद्ध पर्यायनी उत्पत्ति नवी थाय, ने संसारपर्यायनो नाश
थाय, पण कांई जीवद्रव्य के तेना ज्ञानादिगुणो नवा उत्पन्न न थाय, तेमज तेनो नाश न थाय; ते तो सिद्धदशा
वखते के संसारदशा वखते एकरूप धु्रव रहे छे. आवो उत्पाद–व्यय–धु्रवत्व स्वभाव छे.
वस्तुना बधा गुणो धु्रवपणे एक साथे रहे छे, पण पर्यायो एक साथे वर्तती नथी–एक पछी एक वर्ते
छे. जेमके सोनामां तेनी पीळाश वजन वगेरे एक साथे रहे छे, पण तेनी हार मुगट वगेरे अवस्थाओ एक
साथे वर्तती नथी, एवो ज तेनो पर्यायस्वभाव छे. हार भांगीने मुगट थयो, त्यां ते अवस्था सोनीए नथी
बनावी, पण सोनाना ज उत्पाद–व्यय–धु्रव स्वभावने लीधे तेनामां मुगट अवस्थानी उत्पत्ति ने हार
अवस्थानो व्यय तथा सोनानी धु्रवता छे. वस्तुना उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वभावने जे नथी जाणतो ते ज बीजाने
लीधे अवस्था थवानुं माने छे, तेनी मान्यता वस्तुस्वभावथी विपरीत छे एटले के खोटी छे.
वळी उत्पाद–व्यय–धु्रवमां पण, धु्रवस्वभावना लक्षे वीतरागता थाय छे, उत्पाद–व्ययना लक्षे तो राग–
द्वेष थाय छे. जेम सोनामां हार–अवस्था नाश पामीने मुगट–अवस्थानी उत्पत्ति थई; त्यां जे पुरुष हार–
अवस्थाने ईच्छे छे तेने ते अवस्थानो व्यय थतां द्वेष थाय छे, जे पुरुष मुगट–अवस्थाने ईच्छे छे तेने ते
अवस्थानी उत्पत्ति थतां राग थाय छे, पण जे पुरुष सोनानी धु्रवताने देखे छे तेने ते संबंधी रागद्वेष थतो नथी
केमके सोनुं तो हार वखते के मुगट वखते तेटलुं ने तेटलुं धु्रव छे. तेम आत्माना धु्रव ज्ञानानंद स्वभावना
आश्रये वीतरागता थाय छे, ने क्षणिक पर्यायना उत्पाद–व्ययना लक्षे तो राग–द्वेष थाय छे.
परथी उत्पाद–व्यय थाय ए तो वात छे ज नहि. अने, जेम सोनामां तांबानो भाग होय ते तेनो मूळ–
स्वभाव नथी तेम आत्मानी पर्यायमां राग–द्वेष थाय ते