Atmadharma magazine - Ank 141
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २२८ : “आत्मधर्म” : अषाढ : २४८१
आत्मानो मूळस्वभाव नथी. माटे, आत्माना स्वभावने जोनार ते राग–द्वेषपणे ऊपजतो नथी पण वीतरागी–
निर्मळतापणे ऊपजे छे. अहीं स्वभावद्रष्टिमां निर्मळक्रमनी ज वात छे. वस्तुनो एवो स्वभाव ज छे के
क्रमबद्धपर्याय पणे ऊपजे, ते स्वभावने जे फेरववा मागे ते मिथ्याद्रष्टि थाय छे. क्रम–अक्रमपणे वर्ततो जे
ज्ञायकस्वभाव, ते स्वभावमां एकाग्र थनार जीव सम्यग्द्रष्टि थईने क्रमेक्रमे निर्मळपर्यायमां आगळ वधतो
वधतो केवळज्ञान पामे छे.
वस्तुनो स्वभाव ते धर्म छे, तेनुं आ वर्णन छे. उत्पाद–व्यय–धु्रवतारूप जे वस्तुस्वभाव, ते स्वभावनुं
भान थतां पर्यायमां धर्मनी शरूआत थाय छे. मारो ज्ञानस्वभाव अनंतगुणनो भंडार छे–एवी ज्यां श्रद्धा थई
त्यां क्रम–अक्रमवर्तनरूप उत्पाद–व्यय–धु्रवत्वशक्तिनी प्रतीत पण तेमां भेगी आवी ज गई, ने आवी
स्वभावनी प्रतीत थतां शक्तिना भंडारमांथी निर्मळपर्यायनो क्रम पण शरू थई ज गयो. आ रीते शक्ति साथे
पर्यायने भेगी भेळवीने आ वात छे.
क्षणिक पर्यायना लक्षे रागनी उत्पत्ति थती होवाथी नुकशान थाय छे, तेने बदले पर्यायना लक्षे लाभ
थवानुं (–सम्यग्दर्शनादि थवानुं) जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. पर्यायना आश्रये लाभ माननार क्षणिक पर्यायने ज
वस्तुनुं सर्वस्व माने छे एटले ते पर्यायनी द्रष्टि छोडीने द्रव्यस्वभावमां द्रष्टि करतो नथी तेथी तेने
सम्यग्दर्शनादिनो लाभ थतो नथी. धु्रवस्वभावना आश्रये ज सम्यग्दर्शनादिनो लाभ थाय छे. धु्रवस्वभाव
एटले के परम ज्ञायकस्वभाव तेनो विश्वास करीने तेमां एकाग्रताथी वीतरागी समभाव रहे छे, एकली
पर्यायना विश्वासे कदी वीतरागी समभाव रहे ज नहि.
आत्मानो वीतरागी ज्ञातास्वभाव छे, ते स्वभाव तरफ वळीने ज्ञाता रहे तो क्रमबद्धपर्यायोनो जेम छे
तेम वीतरागभावे जाणनार रहे छे. पण ज्ञातापणुं चूकीने फेरफार करवा मांगे छे ते मिथ्याद्रष्टि थाय छे. जेम
कुदरतना क्रममां सात वारनो के अठ्ठावीस नक्षत्रनो जे क्रम छे ते कदी फरतो नथी, छतां तेमां फेरफार थवानुं जे
माने तेना ज्ञानमां भूल थाय छे. तेम पदार्थोनी बधी पर्यायोनो जे क्रम छे ते कदी फरतो नथी, छतां तेमां फेरफार
थवानुं जे माने तेना ज्ञानमां भूल थाय छे एटले ते ज्ञाता न रहेतां मिथ्याद्रष्टि थाय छे. ज्ञानी पोताना
ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत करीने क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता ज रहे छे, साधकदशाना क्रममां वच्चे अस्थिरतानो जे
राग थाय छे तेनो पण ते जाणनार छे.
जुओ, आ ‘क्रमबद्धपर्याय’ नी वात अटपटी छे.... पण सरळ थईने, ज्ञानस्वभावनो महिमा लावीने
जो समजवा मांगे तो सीधीसट छे. आ पोताना स्वभावना घरनी वात छे. आ वात अंतरमां बेठा वगर कोई
रीते मार्ग हाथ आवे तेम नथी. बधाने जाणनारो पोते, पोते पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्या वगर
ज्ञाननुं साचुं कार्य क्यांथी थशे? श्रीमद्राजचंद्र पण कहे छे के–
(अपूर्ण)
बे बोल
(१)
दरेक वस्तुमां पोताना परिणामस्वभावने लीधे
पर्याय थाय छे, बीजाने लीधे नहीं.
(२)
आत्माने पोताना शुद्धस्वभावना आधारे धर्म
थाय छे, व्यवहारना के बीजाना आधारे नहीं.
आ बे वातनो बराबर निर्णय करे तो स्वभावना
आधारे परिणमीने पर्याय स्वयं धर्मरूप थाय.
पू. गुरुदेव