निर्मळतापणे ऊपजे छे. अहीं स्वभावद्रष्टिमां निर्मळक्रमनी ज वात छे. वस्तुनो एवो स्वभाव ज छे के
क्रमबद्धपर्याय पणे ऊपजे, ते स्वभावने जे फेरववा मागे ते मिथ्याद्रष्टि थाय छे. क्रम–अक्रमपणे वर्ततो जे
ज्ञायकस्वभाव, ते स्वभावमां एकाग्र थनार जीव सम्यग्द्रष्टि थईने क्रमेक्रमे निर्मळपर्यायमां आगळ वधतो
त्यां क्रम–अक्रमवर्तनरूप उत्पाद–व्यय–धु्रवत्वशक्तिनी प्रतीत पण तेमां भेगी आवी ज गई, ने आवी
स्वभावनी प्रतीत थतां शक्तिना भंडारमांथी निर्मळपर्यायनो क्रम पण शरू थई ज गयो. आ रीते शक्ति साथे
पर्यायने भेगी भेळवीने आ वात छे.
वस्तुनुं सर्वस्व माने छे एटले ते पर्यायनी द्रष्टि छोडीने द्रव्यस्वभावमां द्रष्टि करतो नथी तेथी तेने
एटले के परम ज्ञायकस्वभाव तेनो विश्वास करीने तेमां एकाग्रताथी वीतरागी समभाव रहे छे, एकली
पर्यायना विश्वासे कदी वीतरागी समभाव रहे ज नहि.
कुदरतना क्रममां सात वारनो के अठ्ठावीस नक्षत्रनो जे क्रम छे ते कदी फरतो नथी, छतां तेमां फेरफार थवानुं जे
माने तेना ज्ञानमां भूल थाय छे. तेम पदार्थोनी बधी पर्यायोनो जे क्रम छे ते कदी फरतो नथी, छतां तेमां फेरफार
थवानुं जे माने तेना ज्ञानमां भूल थाय छे एटले ते ज्ञाता न रहेतां मिथ्याद्रष्टि थाय छे. ज्ञानी पोताना
ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत करीने क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता ज रहे छे, साधकदशाना क्रममां वच्चे अस्थिरतानो जे
रीते मार्ग हाथ आवे तेम नथी. बधाने जाणनारो पोते, पोते पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्या वगर
ज्ञाननुं साचुं कार्य क्यांथी थशे? श्रीमद्राजचंद्र पण कहे छे के–