: अषाढ : २४८१ “आत्मधर्म” : २१३ :
आगमपद्धति अने अध्यात्मपद्धति ए बंनेमां परिणामनी एटले के पर्यायनी वात छे. ते बंने संसार
अवस्था विषे त्रिकाळवर्ती छे, पण तेमां एटलो फेर छे के अध्यात्मपद्धतिरूप शुद्धचेतनापरिणति तो संसारमां
तेमज मोक्षमां पण अनादिअनंत एकरूप वर्ते छे; ने आगमपद्धतिना परिणाम संसारअवस्थामां ज होय छे ते
एकरूप नथी. बधा जीवोने आ बंने प्रकारना भावो संसारमां सदाय वर्ते छे.
प्रश्न:– मोक्षमार्गनी निर्मळपर्याय शेमां आवी?
उत्तर:– अहीं आगम तथा अध्यात्मस्वरूप भावो आत्मद्रव्यना ‘जाणवा’ तथा संसारअवस्थामां तेने
त्रिकाळवर्ती ‘मानवा’ एम कह्युं, तेमां जाणवा अने मानवारूप जे निर्मळपर्याय छे ते मोक्षमार्ग छे, ने तेनुं फळ
मोक्ष छे. अध्यात्मपद्धति अने आगमपद्धति ए बंनेने जाणतां, जीवना शुद्धस्वभावरूपभाव अने क्षणिक
विभावरूप भाव ए बंनेनुं भेदज्ञान थईने मोक्षमार्ग शरू थई जाय छे; आ मोक्षमार्गनी पर्याय तो नवी अपूर्व
प्रगटे छे; ने आगमपद्धति तथा अध्यात्मपद्धति तो ज्ञानी के अज्ञानी बधा जीवोने अनादिथी संसारमां वर्ते ज छे.
आ वस्तु तद्न अंतरना विषयनी छे. आ वस्तु समजाशे तो अमुकने.... पण बधाए ध्यान राखीने
सांभळवुं. आ वात काने पडवी पण बहु मोंघी छे, तो समजे तेनी तो शुं वात!
अनादि संसारथी बधा जीवोने आगम तेमज अध्यात्मरूप भाव वर्ती रह्या छे. तेमां–
आगमरूप कर्मपद्धति छे, अने अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धति छे.
(१) जड कर्म अने ते कर्म तरफनो विकारीभाव ए बंनेनी परंपरा अनादिथी चाली आवे छे ते बंने
कर्मपद्धतिमां जाय छे, ते आगमरूप छे.
(२) अने तेनी साथे ज शुद्धचेतनापरिणामनी परंपरा पण अनादिथी चाली ज आवे छे, ते
शुद्धचेतनापद्धति छे, ते अध्यात्मरूप छे.
हवे आ कर्मपद्धति तथा तथा शुद्धचेतनापद्धति ए बंनेनुं विवेचन करे छे. तेमां प्रथम कर्मपद्धतिनुं
विवेचन–
(१) “कर्मपद्धति पौद्गलिक द्रव्यरूप अथवा भावरूप छे. तेमां द्रव्यरूप तो पुद्गलना परिणाम छे, ने
भावरूप पुद्गलाकार आत्मानी अशुद्धपरिणतिरूप परिणाम छे. ते बंने परिणाम आगमरूप स्थाप्यां.”
पुद्गलमां अनादिप्रवाहथी कर्मरूप अवस्था चाली आवे छे ते द्रव्यरूप कर्मपद्धति छे. तेमज जीवमां पण
मूळस्वभावमां अशुद्धता न होवा छतां, पर्यायमां अनादिथी अशुद्धतानी परंपरा चाली आवे छे ते भावरूप कर्मपद्धति
छे. जीवनी अशुद्ध परिणति पुद्गलकर्मना आश्रये थाय छे तेथी ते अशुद्धताने ‘पुद्गलाकार’ कही छे. पुद्गलमां आठ
कर्मरूप अवस्था ते द्रव्य कर्मपद्धति छे ने तेना निमित्ते थती जीवनी अशुद्धपरिणति ते भावरूप कर्मपद्धति छे. अहीं ए
वात ध्यानमां राखजो के जेम आ कर्मपद्धति ते परिणामरूप छे, तेम शुद्धचेतनापद्धति पण परिणामरूप लेशे.
प्रश्न:– त्रिकाळी द्रव्य–गुणमां विकार न होवा छतां पर्यायमां केम विकार थाय छे? शुं द्रव्यगुणमांथी ते
विकार आव्यो?
उत्तर:– त्रिकाळी द्रव्य–गुणमां विकार न होवा छतां पर्यायमां विकार थाय छे, त्यां एवो ज कर्मपद्धतिनो
स्वभाव छे, एटले के ते ते पर्यायनो ज एवो अहेतुक स्वभाव छे. ते विकार द्रव्य–गुणमांथी पण नथी आव्यो,
तेम बीजा द्रव्यमांथी पण नथी आव्यो, पण ते पर्याय ज तेवा विकारीभावरूपे थई छे–एवो ज ते पर्यायनो
स्वभाव छे. जुओ, पुद्गल परमाणुओमां पण एवो कोई त्रिकाळीगुण नथी के कर्मरूपे परिणमे, छतां तेओ
कर्मअवस्था थाय छे, ते क्यांथी आवी? के एवी ज ते पर्यायनी पद्धति छे. ए ज रीते जीवमां पण एवी कोई
त्रिकाळी शक्ति नथी के विकारने उपजावे, छतां तेनी अवस्थामां विकार थाय छे, ते क्यांथी आव्यो? के एवी ज
ते पर्यायनी पद्धति छे, एवो ज ते पर्यायनो अहेतुकस्वभाव छे.
‘चिद्दविलास’ मां पण आ बाबत कह्युं छे के जेम पुद्गल वस्तु विषे स्कंध–कर्म–विकार थाय एवो कोई गुण
तो नथी परंतु ते पुद्गलवस्तुना परिणाम ते स्कंधविकारभावरूप स्वांग धरीने परिणमे छे, बीजा कोई द्रव्यना