Atmadharma magazine - Ank 141
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २१४ : “आत्मधर्म” : अषाढ : २४८१
परिणाम ए कर्मविकारभावने धारण करीने परिणमता नथी पण आ एक पुद्गल ज ते स्वांग धारण करीने
वर्ते छे–ए निःसंदेह छे. एवी ज रीते आ जीववस्तुना परिणाम पण रंजक–मलिन, संकोच–विस्तार, अज्ञान,
मिथ्यादर्शन, अविरत वगेरे चेतनविकाररूपे थईने परिणमे छे; एवो चेतनविकारभाव तो ते चेतनद्रव्यना
परिणाम विषे ज जोवामां आवे छे, अचेतनद्रव्यना परिणाम विषे ते कदी जोवामां आवतो नथी.
–ए वात निःसंदेह छे. ए प्रमाणे जे विकारभाव छे ते पोतपोताना द्रव्यना परिणाम विषे ज थाय छे,
अने ते ते द्रव्यना परिणाम–आश्रित ज ते विकार होय छे. –एने पण निश्चयसंज्ञा कहेवाय छे.
अहीं एटलुं बताववुं छे के त्रिकाळी द्रव्यमां के गुणमां विकार न होवा छतां पर्यायमां विकार थाय छे,
एवो ज तेनो कोई स्वभाव छे. तेमांथी पुद्गलमां कर्मरूप विकारी अवस्थानी जे परंपरा अनादिथी चाली आवे
छे ते द्रव्यरूप कर्मपद्धति छे, अने जीवमां अशुद्धतारूप विकारी अवस्थानी जे परंपरा अनादिथी चाली आवे छे
ते भावरूप कर्मपद्धति छे. कर्मपद्धतिना आ द्रव्यरूप तेमज भावरूप ए बंने परिणामोने आगमरूप स्थाप्या. आ
कर्मपद्धतिना परिणाम मोक्षगामी भव्यजीवने अनादिशांत छे, ने मोक्षने माटे नालायक जीवने अनादि–अनंत
छे. आ रीते जीवने ज्यां सुधी संसार छे त्यां सुधी आ परिणामनी परंपरा त्रिकाळवर्ती मानवी. अने
अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धतिमां शुद्धपरिणामनी परंपरा छे, ते तो बधाय जीवोने अनादि–अनंत दरेक समये
वर्ते ज छे, एम जाणवुं.
जुओ, अहीं कर्मपद्धतिने आगम कहीने आगमनी व्याख्या पण जुदी ज शैलिथी करी छे; तेम
शुद्धचेतनापद्धतिने अध्यात्म कहीने तेनी व्याख्या पण जुदी ज ढबथी करशे.
जीवमां विकार अने पुद्गल कर्म–ए बंने परिणामोने आगमरूप स्थाप्या; एटले एवी ज अनादि
परंपरा छे, ‘आम केम’ एवो कोई तर्क तेमां नथी; पोतपोताना कारणे एवी ज पर्याय थाय छे–एवो ज
कर्मपद्धतिनो स्वभाव छे. विकार ते वस्तुनो मूळस्वभाव नथी पण आगंतुकभाव छे. –अनादि परंपराथी ते
चाल्यो आवे छे तेथी तेने ‘आगम’ कहेल छे. जीवना द्रव्य–गुणमां विकार नथी छतां पर्यायमां थयो, ए ज
प्रमाणे पुद्गलना द्रव्य–गुणमां कर्म थवानो स्वभाव न होवा छतां कर्मरूप पर्याय थई, –आवो ज कोई अहेतुक
स्वभाव छे, एम जाणवुं. आ जाणे तो भेदज्ञान थया वगर रहे नहि.
आ रीते आगमरूप कर्मपद्धतिनुं विेचन पूरुं थयुं.
हवे अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धतिनुं विेचन करे छे.
(२) “शुद्धचेतना पद्धति एटले के शुद्धात्मपरिणाम ते पण द्रव्यरूप तथा भावरूप एम बे प्रकारे छे.
तेमां द्रव्यरूप तो जीवत्वपरिणाम छे; तथा भावरूप ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनंत गुणपरिणाम छे. ए
बंने परिणाम अध्यात्मरूप जाणवा.”
अहीं नियमसारनी कारणशुद्धपर्याय साथे संधिवाळी जे मूळ वात लेवी छे ते आ शुद्धचेतनारूप
अध्यात्मपद्धतिमांथी नीकळे छे. ज्ञान, दर्शन, सुख ने वीर्य वगेरे बधा गुणोमां, संसारअवस्था वखते पण
शुद्धपरिणामनी परंपरा वर्ती रही छे–तो आ कया शुद्धपरिणाम लेशो? संसारअवस्था वखते जे प्रगट उत्पादरूप
परिणाम छे ते कांई शुद्ध नथी, तेमां तो अशुद्धता छे. जो प्रगट उत्पाद परिणाममां सदाय शुद्धता ज होय तो कोई
जीवने संसार ज न रह्यो. माटे आ प्रगट उत्पादरूप परिणामनी वात नथी. तेमज त्रिकाळीद्रव्य–गुणनी पण आ
वात नथी, केमके आगम तेमज अध्यात्म बंने पद्धतिमां परिणामनी ज वात छे. अध्यात्मपद्धतिमां जे त्रिकाळवर्ती
शुद्धपरिणाम कह्या छे ते धु्रवरूप छे–सदा सद्रशपरिणमनरूप छे. आखा जीवद्रव्यनी धु्रवपरिणतिरूप शुद्धपरिणामनी
जे परंपरा छे ते द्रव्यरूप शुद्धचेतना पद्धति छे. अने ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य वगेरे प्रत्येक गुणोमां धु्रव
परिणतिरूप शुद्ध परिणामनी जे परंपरा छे ते भावरूप शुद्धचेतनापद्धति छे. द्रव्यरूप शुद्धचेतना पद्धतिमां तो
आखा जीवद्रव्यना परिणाम लीधा छे, ने भावरूप शुद्धचेतनापद्धतिमां दरेक गुणना परिणाम लीधा छे.
नियमसारनी त्रीजी गाथामां ‘शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम’ ने स्वभाव अनंत चतुष्टयात्मक कह्या, अने
अहीं ‘शुद्ध–