Atmadharma magazine - Ank 142
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २४२: आत्मधर्म: १४२
जीवने विकार थाय –ए मान्यता तो महा विपरीत छे, ‘मारे तीव्र मिथ्यात्वनो उदय आवे तो तेवुं तीव्र
मिथ्यात्व करवुं ज पडे’ एवुं मिथ्यात्वनुं जोर तेना अभिप्रायमां पड्युं छे. अहीं भगवान अमृतचंद्राचार्यदेव
स्पष्ट खुलासो करे छे के कर्मना उदय प्रमाणे विकार थतो नथी पण जीवना कर्तृधर्म प्रमाणे विकार थाय छे, एटले
के जीव पोते पोताना रागपरिणामने करनार छे. कर्म विकार करावे ए वात तो छे ज नहि, अने ‘हुं रागनो
कर्ता छुं’ एम एकला रागनी सामे जोईने मानवानी पण आ वात नथी; अहीं तो, साधकजीवे अनंतधर्मवाळा
शुद्ध चैतन्यद्रव्यने जाण्युं छे अने ते द्रव्यनी द्रष्टिपूर्वक पर्यायना रागनुं ज्ञान करे छे तेनी आ वात छे.
शुद्धचैतन्यद्रव्य उपर ज तेनी द्रष्टिनुं जोर होवाथी तेने अल्पकाळमां विकारनुं परिणमन टळी जशे ने दिव्य
महिमावाळुं केवळज्ञान प्रगटी जशे.
यथार्थनयथी धर्मने जोतां तेना आधाररूप धर्मी पण द्रष्टिमां आवे छे, एटले स्वभाव तरफ वलण थईने
अल्पकाळमां मुक्ति थया विना रहेती नथी; आ रीते सम्यक्नयोनुं फळ मोक्ष छे.
‘कर्तृनयथी आत्मा विकारनो कर्ता छे’–एम कह्युं, तो पण एकला विकार सामे जोईने आ धर्म मनातो
नथी, पण आत्मद्रव्यनी सामे जोईने आ धर्म जणाय छे; केम के आ धर्म आत्माथी बहारमां नथी एटले आ
धर्म माननारने बहारमां जोवानुं रहेतुं नथी. विकारनुं परिणमन परने लीधे थतुं नथी पण आत्मद्रव्यनो तेवो
कर्तृधर्म छे–एम नयज्ञानथी जोतां ज्ञान आत्मासन्मुख थाय छे, ने त्यां रागना कर्तापणानी मुख्यता नथी रहेती
पण आखा द्रव्यनी मुख्यता थई जाय छे. आ रीते शुद्धस्वभावनी सामे द्रष्टि राखीने पर्यायमां रागना
कर्तापणानुं ज्ञान करे तेने ज ‘कर्तृनय’ होय छे, बीजाने ‘कर्तृनय’ होतो नथी. ‘नय’ ते सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्यनुं
किरण छे, अज्ञानीने नय होता नथी.
कर्तृनये पण आत्मा शरीर वगेरे परनो तो कर्ता छे ज नहि, मात्र पोतानी पर्यायमां रागादिनो कर्ता छे;
अने ते कर्तापणुं पण त्रिकाळी स्वभाव नथी; रागपणे ज्यां सुधी परिणमे छे त्यां सुधी ज तेनामां कर्तापणुं छे,
अने ते वखते य स्वभाव द्रष्टिमां तो शुद्धचेतनानुं ज कर्तापणुं वर्ते छे. कर्तृनयथी आत्माने जुए तेने पण एम
नथी थतुं के मारो आत्मा सदाय रागादिनो कर्ता ज रहेशे! कर्तृनयवाळाने पण क्षणेक्षणे पर्यायमांथी रागनुं
कर्तापणुं घटतुं जाय छे ने साक्षीपणुं वधतुं जाय छे. अत्यारे रागने करे छे एवो मारा आत्मानो एक धर्म छे––
एम कर्तृनयथी जोनार पण ते धर्मद्वारा धर्मी एवी शुद्ध चैतन्यवस्तुने अंतरमां देखे छे, एटले कर्तृनयनुं फळ
रागनो कर्ता रहेवुं ते नथी पण शुद्धचैतन्यद्रव्यना अवलंबने राग टळी जाय ते कर्तृनयनुं फळ छे.
प्रश्न:– समयसारमां तो एम कह्युं छे के आत्मा ज्ञायकस्वभाव छे, ते रागनो कर्ता नथी, रागनो कर्ता तो
पुद्गल छे; अने अहीं एम कह्युं छे के रागनुं कर्तापणुं ते आत्मानो धर्म छे.–तो आ बे कथननो मेळ कई रीते छे?
उत्तर:– समयसारमां द्रव्यद्रष्टिनी प्रधानताथी रागने पुद्गलनुं कार्य कह्युं, अने अहीं प्रमाणना विषयमां
पर्यायनुं ज्ञान कराववा तेने आत्मानुं कार्य कह्युं, छतां तेमां परस्पर विपरीतता नथी, बंनेनुं तात्पर्य एक ज
छे.‘रागनो कर्ता आत्मा नथी’ एम कहीने समयसारमां शुद्धद्रव्यद्रष्टि कराववानुं तात्पर्य छे; अने अहीं पण,
‘कर्तृनयथी रागनो कर्ता आत्मा छे’–एम कहीने ते धर्म द्वारा पण धर्मी एवा शुद्ध चैतन्यद्रव्यनुं ज लक्ष
कराववानुं तात्पर्य छे. शास्त्रोनी कथनशैलीमां फेर भले होय, पण तेना फळमां फेर नथी; फळ तो ए ज छे के
अंतरमां शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मानी प्राप्ति थाय. अहीं कर्तृनयथी आत्माने रागनो कर्ता कह्यो तेमां पण रागना
कर्तापणामां अटकावी देवानो आशय नथी, पण ते धर्मनुं धारक एवुं त्रिकाळी आत्मद्रव्य ओळखावीने
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कारववानुं ज प्रयोजन छे.
‘कर्तृनये रागादिनुं करनार छे.’
–कोण?
–आत्मद्रव्य
–माटे कर्तृनयथी जोनारनी द्रष्टि कोना तरफ गई?