
–ए वात तो पहेलेथी ज खास भारपूर्वक कहेता आव्या छीए के अनंत धर्मना पिंड एवा
लीधुं त्यां रागनुं कर्तापणुं लंबाई–एम बने ज नहि, अल्पकाळमां ज रागनुं परिणमन छूटी जाय.
शुद्धआत्माने जोनारो रागमां अटकी जतो नथी एटले के ‘रागपणे ज हुं रहीश’ एम ते प्रतीत करतो नथी, तेने
तो एम निःशंकता छे के हुं मारा शुद्ध चैतन्यस्वभावपणे परिणमीने अल्पकाळमां ज आ रागनो अभाव करी
नाखीश. अत्यारे रागपणे जेटलुं परिणमन छे तेटलो मारो धर्म छे (–रागथी जीवने धर्म थाय छे एम अहीं न
समजवुं, परंतु राग ते जीवनो भाव छे, रागरूपे आत्मा पोते परिणम्यो छे माटे तेने आत्मानो धर्म कह्यो छे–)
एम धर्मी जाणे छे, परंतु हुं सदाय रागरूपे ज परिणम्या करीश–एम धर्मी जोतो नथी, ते अंतरमां
निजआत्मद्रव्यने शुद्धचैतन्यमात्र देखे छे, तेनी पासे तेने रागनी अत्यंत तूच्छता भासे छे तेथी तेने राग टळी
ज जाय छे.
छे?–आत्मद्रव्यनो छे;–ते आत्मद्रव्य केवुं छे? अनंत धर्मना पिंडरूप शुद्धचैतन्यमात्र छे. आवा आत्मद्रव्यनी
द्रष्टिपूर्वक कर्तृनयथी रागनुं कर्तापणुं जेणे जाण्युं तेने राग लंबातो नथी, पण स्वभावद्रष्टिना जोरे राग तूटतो ज
जाय छे.
कर्तृधर्मने कबुले छे? तारी मीट विकार उपर छे? के आत्मद्रव्य उपर? विकार उपर मीट मांडीने आत्माना धर्मनुं
यथार्थ ज्ञान थतुं नथी, आत्मद्रव्यनी सामे मीट मांडीने ज तेना धर्मनुं यथार्थज्ञान थाय छे. माटे कर्तृनयथी
रागनुं कर्तापणुं जाणनारनी द्रष्टि पण शुद्धआत्मद्रव्य उपर ज होय छे; ने शुद्धआत्मा उपर द्रष्टि होय तेने
विकारनुं कर्तृत्व टळीने अल्पकाळमां वीतरागता थया विना रहे ज नहि. आ रीते, अनंतधर्मना पिंडरूप शुद्ध
आत्मद्रव्यने द्रष्टिमां राखीने समजे तो ज बधा कथननुं यथार्थ तात्पर्य समजाय छे.
छे, तेम अकर्तृनयथी आत्मा रागादिनो कर्ता नथी पण साक्षी ज छे.
पूर्वे रागना कर्तारूपधर्म कह्यो अने अहीं रागना अकर्तारूप धर्म कह्यो, ते बन्ने धर्मो कांई जुदा जुदा आत्माना
नथी, एक आत्मामां ते बन्ने धर्मो एक साथे वर्ते छे. जे वखते पर्यायमां राग छे ते ज वखते द्रव्यस्वभावनी
द्रष्टिथी जुओ तो ज्ञायकस्वभावरूप आत्मा रागादिरूपे परिणम्यो ज नथी.