Atmadharma magazine - Ank 142
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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श्रावण: २४८१ : २४३:
–अनंतधर्मोवाळा आत्मद्रव्य तरफ तेनी द्रष्टि गई.
–ए वात तो पहेलेथी ज खास भारपूर्वक कहेता आव्या छीए के अनंत धर्मना पिंड एवा
शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्माने देखवो ते ज आ बधाय नयोनुं परमार्थ तात्पर्य छे. ज्यां शुद्ध आत्मद्रव्यने द्रष्टिमां
लीधुं त्यां रागनुं कर्तापणुं लंबाई–एम बने ज नहि, अल्पकाळमां ज रागनुं परिणमन छूटी जाय.
कर्तृनयथी आत्माने रागनो कर्ता मान्यो माटे हवे ते आत्मा अनादिअनंत रागनो कर्ता ज रहेशे––एम
नथी; केमके आ धर्मने जोनार पण एकला धर्मने ज नथी भाळतो परंतु धर्मी एवा शुद्धआत्माने भाळे छे, ने
शुद्धआत्माने जोनारो रागमां अटकी जतो नथी एटले के ‘रागपणे ज हुं रहीश’ एम ते प्रतीत करतो नथी, तेने
तो एम निःशंकता छे के हुं मारा शुद्ध चैतन्यस्वभावपणे परिणमीने अल्पकाळमां ज आ रागनो अभाव करी
नाखीश. अत्यारे रागपणे जेटलुं परिणमन छे तेटलो मारो धर्म छे (–रागथी जीवने धर्म थाय छे एम अहीं न
समजवुं, परंतु राग ते जीवनो भाव छे, रागरूपे आत्मा पोते परिणम्यो छे माटे तेने आत्मानो धर्म कह्यो छे–)
एम धर्मी जाणे छे, परंतु हुं सदाय रागरूपे ज परिणम्या करीश–एम धर्मी जोतो नथी, ते अंतरमां
निजआत्मद्रव्यने शुद्धचैतन्यमात्र देखे छे, तेनी पासे तेने रागनी अत्यंत तूच्छता भासे छे तेथी तेने राग टळी
ज जाय छे.
‘आत्माने रागनुं कर्तापणुं स्वीकारतां तो ते कर्तापणुं अनादिअनंत रही जशे! –माटे कर्मने ज रागनो
कर्ता कहो’–एम कोईने थाय तो ते खोटुं छे, कर्तृनयना अभिप्रायने ते समज्यो ज नथी, हे भाई! कर्तृधर्म कोनो
छे?–आत्मद्रव्यनो छे;–ते आत्मद्रव्य केवुं छे? अनंत धर्मना पिंडरूप शुद्धचैतन्यमात्र छे. आवा आत्मद्रव्यनी
द्रष्टिपूर्वक कर्तृनयथी रागनुं कर्तापणुं जेणे जाण्युं तेने राग लंबातो नथी, पण स्वभावद्रष्टिना जोरे राग तूटतो ज
जाय छे.
हवे कोई एम कहे के, ‘कर्म आत्माने विकार न करावे पण कर्तृनये आत्मा विकार करे–एम अमे मानी
लीधुं!’–तो तेने पूछीए छीए के हे भाई! तारी द्रष्टि क्यां ऊभी छे? कोनी सामे मीट मांडीने तुं आत्माना
कर्तृधर्मने कबुले छे? तारी मीट विकार उपर छे? के आत्मद्रव्य उपर? विकार उपर मीट मांडीने आत्माना धर्मनुं
यथार्थ ज्ञान थतुं नथी, आत्मद्रव्यनी सामे मीट मांडीने ज तेना धर्मनुं यथार्थज्ञान थाय छे. माटे कर्तृनयथी
रागनुं कर्तापणुं जाणनारनी द्रष्टि पण शुद्धआत्मद्रव्य उपर ज होय छे; ने शुद्धआत्मा उपर द्रष्टि होय तेने
विकारनुं कर्तृत्व टळीने अल्पकाळमां वीतरागता थया विना रहे ज नहि. आ रीते, अनंतधर्मना पिंडरूप शुद्ध
आत्मद्रव्यने द्रष्टिमां राखीने समजे तो ज बधा कथननुं यथार्थ तात्पर्य समजाय छे.
–३८ मा कर्तृनयथी आत्मानुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.
[३९] अकर्तृनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य अकर्तृनये केवळ साक्षी ज छे; जेम रंगारो पोताना रंगकाममां प्रवृत्त होय तेने बीजो पुरुष
जोतो होय, त्यां ते जोनार पुरुष रंगकाम जेवुं थाय छे तेने जाणे छे पण तेनो ते कर्ता नथी; ते तो तेनो साक्षी ज
छे, तेम अकर्तृनयथी आत्मा रागादिनो कर्ता नथी पण साक्षी ज छे.
अहीं परनी वात नथी, परनो तो आत्मा अकर्ता छे ज; ने पोतानी पर्यायमां राग थाय छे तेनो पण
अकर्ता–साक्षी ज छे एवो आत्मानो स्वभाव छे. राग वखते य रागना अकर्तारूप स्वभाव आत्मामां रहेलो छे.
पूर्वे रागना कर्तारूपधर्म कह्यो अने अहीं रागना अकर्तारूप धर्म कह्यो, ते बन्ने धर्मो कांई जुदा जुदा आत्माना
नथी, एक आत्मामां ते बन्ने धर्मो एक साथे वर्ते छे. जे वखते पर्यायमां राग छे ते ज वखते द्रव्यस्वभावनी
द्रष्टिथी जुओ तो ज्ञायकस्वभावरूप आत्मा रागादिरूपे परिणम्यो ज नथी.
आ आत्माना धर्मोनुं वर्णन चाले छे. आत्मा अनंत धर्मना स्वभाववाळो शुद्धचैतन्यस्वरूप छे, तेनी
द्रष्टिपूर्वक आ धर्मनुं ज्ञान करवुं ते नय छे.
समयसारमां एम कह्युं छे के अज्ञानदशामां मिथ्या–