
अहीं तो एम कहे छे के सम्यग्द्रष्टि जीव पण पर्यायमां जे राग थाय छे तेनो कर्ता छे अने ते ज वखते तेनो
अकर्ता पण छे–एवा बन्ने धर्मो तेनामां एक साथे छे.
छे पण आखो अंशी नथी, आखो अंशी तो अनंत धर्मोनो चैतन्यपिंड छे–आम जाण्युं–ते शुद्धचैतन्यस्वभावनी
प्रधानतामां रागनो साक्षी ज रहे छे, तेने अकर्तृनय होय छे. बधा धर्मोना आधाररूप एवा निज आत्मद्रव्य
उपर द्रष्टि राखीने धर्मी जीव तेना धर्मोने जाणे छे, अकर्तृनयथी आत्माने रागनो अकर्ता साक्षीस्वरूप पण जाणे
छे ने कर्तृनयथी रागपरिणामनो कर्ता पण जाणे छे.–परंतु द्रष्टिमां तो शुद्धचैतन्यद्रव्यनी ज प्रधानता होवाथी
पर्यायमांथी रागनुं कर्तापणुं छूटतुं जाय छे, ने साक्षीपणुं वधतुं जाय छे.
रागनो ते कर्ता थतो नथी पण केवळ साक्षी ज रहे छे. जे वखते जेवो राग होय ते वखते तेनुं तेवुं ज्ञान करे छे,
पण आ वखते आवो ज राग लावुं–एवो अभिप्राय करतो नथी एटले साक्षी ज रहे छे. कर्तृनयथी रागनो
कर्ता, अने ते ज वखते अकर्तृनयथी तेनो साक्षी,–आम बंने धर्मोने एक साथे धारण करनार आत्मा
अनेकान्तस्वभावी छे. आवा धर्मोथी आत्माने जाणतां वीतरागीद्रष्टि थवानो प्रसंग आवे छे, पण एकला
रागना कर्तापणामां अटकवानो प्रसंग रहेतो नथी.
अज्ञानी छे. अने सर्वथा रागपणे परिणमनारो ज माने पण रागना अकर्तापणे रहेवानो साक्षीस्वभाव छे तेने
न जाणे तो ते पण अज्ञानी छे. धर्मी साधक जाणे छे के पर्यायमां रागनुं परिणमन छे अने ते ज क्षणे
स्वभावद्रष्टिथी हुं रागपणे नथी परिणमतो, एटले ते क्षणे पण वीतरागीसाधकदशानुं परिणमन वधतुं जाय छे.
जे क्षणे रागपरिणामनुं कर्तापणुं जाणे छे ते ज क्षणे स्वभावना आधारे रागना अकर्तारूप वीतरागी साक्षीपणुं
पण वधतुं ज जाय छे; जो रागना कर्तापणा वखते ज रागना अकर्तारूप वीतरागतानुं परिणमन न वर्ततुं होय
तो साधकपणुं ज रहे नहि.
साक्षीपणुं कहेशे, त्यां हर्ष–शोकना भोक्तापणानी सामे साक्षीपणुं कह्युं छे. ए रीते नय ३७–३९ ने ४१मां कहेला
त्रणे साक्षीधर्मोमां विवक्षा भेद छे, पण तात्पर्य तो त्रणेनुं एक ज छे.