
रागनो साक्षी रहे छे तेने आ नय होय छे. राग थाय छे ते पर्यायनो स्वभाव छे, जे पर्यायमां राग थाय छे ते
ज पर्यायनो ते स्वभाव छे, बीजी पर्यायमां तेनो अभाव छे, ते आत्मानो कायमी स्वभाव होय तो ते कदी टळे
नहि, पण क्षणिकपर्यायनो धर्म होवाथी ते टळी शके छे. रागने क्षणिक पर्यायनो धर्म कहेतां तेमां ए वात आवी
गई के परने लीधे के कर्मना उदयने लीधे राग थयो नथी;––जेनो जे धर्म होय ते बीजी चीजने लीधे होई शके
नहि. पर्यायमां राग अने ते ज वखते तेनुं साक्षीपणुं–ए बंने धर्म साधकने एक साथे वर्तता होवा छतां, एकना
कारणे बीजो धर्म नथी. ‘राग छे माटे तेने जाणे छे?’–ना; रागने लीधे साक्षीपणुं नथी, साक्षीपणुं एक स्वतंत्र
स्वभाव छे.
रागथी अधिक रहीने तेना साक्षीपणे परिणमे छे–एवो साधकनो धर्म छे. तेमां रागने कारणे साक्षीपणुं नथी. जो
एक धर्म बीजा धर्मने कारणे होय तो ते धर्मनी हीनता थाय छे एटले के ते धर्म स्वतंत्र साबित थतो नथी.
वस्तु अपेक्षाए जोतां बधा धर्मो परस्पर सापेक्ष छे, पण ते दरेक धर्म पोतपोताथी ज छे.
भिन्न ओळखावे छे, पण मारा धर्मो परने कारणे ने परना धर्मो मारा कारणे–एम माने तो तेने बे वस्तु वच्चे
आंतरो पडतो नथी.
बदले एकला रागना कर्तापणाने ज देखे ने साक्षीरूप अकर्ता स्वभावने न देखे तो तेणे आत्मा सामे जोयुं ज
नथी, एकांत राग सामे जोयुं छे, एटले तेने चैतन्यस्वरूप आत्मानी सिद्धि थती नथी.
अकर्तारूप निश्चयस्वभावनुं भान पण साथे ज रहेलुं छे. आ रीते साधकने निश्चय–व्यवहार बंने एक साथे होय
छे. पहेलांं व्यवहार ने पछी निश्चय–एम नथी. क्षणिक पर्यायमां रागनो कर्ता छे ते व्यवहार अने त्रिकाळी
स्वभावथी रागनो अकर्ता छे ते निश्चय, ते बन्ने पोत पोताना कारणे एक समये ज छे. कोई एम कहे के––
पहेलो व्यवहार परिणमे ने पछी व्यवहार निश्चयनुं कारण थाय, तो ए वात तद्न मिथ्या छे. रागना कर्तारूप
व्यवहार वखते ज जो अकर्तास्वभावनुं भान न वर्ततुं होय तो तेने राग साथे एकत्वबुद्धिथी मिथ्यात्व छे, तेनी
द्रष्टि एकांतराग उपर पडी छे एटले तेनो नय पण साचो नथी. एकलो रागनो कर्ता ज थईने कर्ताधर्मने अने
अकर्ताधर्म (अर्थात् साक्षीधर्म) ने जाणी न शकाय. पण पोते शुद्धचैतन्यनी द्रष्टि करीने रागनो अंशे अकर्ता
थयो छे ने हजी अंश रागनुं कर्तापणुं पण छे–एवा साधकने बन्ने धर्मोनुं यथार्थ ज्ञान होय छे.
सांभळवा ऊभो नहि रहे. ‘प्रभो! आत्मानुं स्वरूप शुं छे? तेनो अनुभव केम थाय?’–एम विनयथी पूछनार
शिष्यने आत्मा समजवानी जिज्ञासा छे, साचा गुरुनी श्रद्धा छे, कुदेवादिनी मान्यता छूटी गई छे, स्वर्ग वगेरे
केम मळे––तेनी भावना नथी, पण आत्माना आनंदनो अनुभव केम थाय––ते ज भावना छे. एवा सुपात्र
जीवने अहीं आचार्यदेव आत्मानुं स्वरूप समजावे छे. आ