श्रावण: २४८१ : २४७:
उपदेश अनुसार आत्मानो स्वभाव समजीने ते जीव साधक थया विना रहे ज नहि.
आचार्यदेव कहे छे के जो भाई! पर्यायमां जे क्षणे राग थाय छे ते ज क्षणे तेनाथी अधिक रहीने
साक्षीपणे रहेवानो तारो स्वभाव छे. रागनुं कर्तृत्व तो क्षणपूरतुं छे ते तारो कायमी स्वभाव नथी. तुं तो
अनंतधर्मना पिंडरूप शुद्धचैतन्यद्रव्य छो. “कर्तृनयथी रागना कर्तृत्वनो धर्म कह्यो माटे राग थवानो हशे तेम
थया करशे–आत्मा सदा रागनो कर्ता रह्या करशे”–एम एकांत रागने ज देखे ने ते ज वखते अनंतधर्मोनो पिंड
आत्मा छे तेने न देखे तो ते एकांतवादी मिथ्याद्रष्टि छे. तेने कर्तृनयनी पण खबर नथी. अनंतधर्मना
चैतन्यपिंडरूप आत्मस्वभावने जे देखे ते जीव एकला रागमां अटकी जतो नथी, कर्तृनयथी रागनुं कर्तापणुं
जाणे भले पण तेमां ज अटकी जतो नथी. जे क्षणे राग थाय छे ते ज क्षणे, स्वद्रव्य तरफना वलणमां ते रागथी
अधिक थईने साक्षीपणे परिणमे छे, –आ रीते साधकने बंने धर्मो एक साथे परिणमे छे; पण तेमां साक्षीपणुं
तो वधतुं ज जाय छे ने राग घटतो ज जाय छे. तेने अल्पकाळे कर्तृधर्म टळी जाय छे ने ते साक्षात् अकर्ता
साक्षीस्वरूप थई जाय छे. समयसारना परिशिष्टमां वर्णवेली ४७ शक्तिओमां पण अकर्तृत्वशक्तिनुं वर्णन
करतां कह्युं छे के आत्मा ज्ञातापणा सिवायनां रागादि परिणामोनो कर्ता थतो नथी – एवी तेनी अकर्तृत्व शक्ति
छे.
अहीं ३८ तथा ३९मा नयथी कर्ताधर्म तथा तेनी सामे अकर्तारूप साक्षीधर्मनुं वर्णन कर्युं, ते ज प्रमाणे
हवे ४०–४१मा नयथी भोक्ताधर्म तथा तेनी सामे अभोक्तारूप साक्षीधर्मनुं वर्णन करशे.
र.त्न.त्र.य
त्रिभुवनपूज्य सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय
ते ज सिद्धांतनुं सर्वस्व छे अने ते ज त्रणेकाळना मोक्षगामी
जीवोने मुक्तिनुं कारण छे, ए वात ज्ञानार्णवमां श्री
शुभचंद्राचार्य कहे छे:
• आ रत्नत्रय ज सिद्धांतनुं सर्वस्व छे तथा ते ज
मुक्तिनुं कारण छे. वळी जीवोनुं हित ते ज छे अने प्रधान
पद ते ज छे.
• जे संयमी मुनिओ पूर्वे मोक्ष गया छे. वर्तमानमां
जाय छे ने भविष्यमां जशे तेओ खरेखर आ अखंडित
रत्नत्रयने सम्यक्प्रकारे आराधीने ज गया छे, जाय छे अने
जशे.
• आ सम्यक् रत्नत्रयने प्राप्त कर्या वगर करोडो
अबजो जन्म धारण करवा छतां पण कोई जीव मोक्षलक्ष्मीना
मुख कमळने साक्षात् देखी शकता नथी.
––ज्ञानार्णव : २२–२३–२४