: २४८: आत्मधर्म: १४२
आत्मानो अद्भुत वैभव
अहो! आत्मानो ते आ सहज अद्भुत वैभव छे के–
एक तरफथी जोतां ते अनेकताने पामेलो छे अने एक तरफथी जोतां
सदाय एकताने धारण करे छे,
एक तरफथी जोतां क्षणभंगुर छे अने एक तरफथी जोतां सदाय तेनो
उदय होवाथी ध्रुव छे,
एक तरफथी जोतां परम विस्तृत छे अने एक तरफथी जोतां पोताना
प्रदेशोथी ज धारण करी रखायेलो छे.
––आवो अनंतधर्मना वैभववाळो आत्मस्वभाव छे; ते अज्ञानीओना
ज्ञानमां तो आश्चर्य ऊपजावे छे के आ तो असंभवित जेवी वात छे!
ज्ञानीओने जो के वस्तुस्वभावमां आश्चर्य नथी तोपण, आत्माना अद्भुत
वैभवने जाणतां तेमने पूर्वे कदी नहोतो थयो एवो अद्भुत परम आनंद थाय
छे, अने तेथी आश्चर्य पण थाय छे
वळी केवो छे आत्मानो वैभव?
एक तरफथी जोतां कषायोनो कलेश देखाय छे अने एक तरफथी जोतां
शांति छे,
एक तरफथी जोतां भवनी पीडा देखाय छे अने एक तरफथी जोतां
मुक्ति पण स्पर्शे छे.
एक तरफथी जोतां त्रण लोक स्फुरायमान छे अने एक तरफथी जोतां
केवळ एक चैतन्य ज शोभे छे;
––आवो आत्मानो अद्भुतथी पण अद्भुत स्वभाव महिमा जयवंत
वर्ते छे स्वभावनो आवो महिमा जाणतां अद्भुतता लागे छे के: अहो!
जिनवचनो महा उपकारी छे, वस्तुना यथार्थ स्वरूपने जणावनारां छे,
आत्मानो अद्भुत वैभव देखाडनारां छे; में अनादिकाळ वस्तुस्वरूपना ज्ञान
विना खोयो, में मारा अद्भुतवैभवने न जाण्यो... निजवैभवने भूलीने
अत्यार सुधी हुं परमां मोह्यो! हवे श्रीगुरुए करुणा करीने मने मारा
आत्मानो अद्भुत वैभव बताव्यो.–आम आश्चर्यपूर्वक निजवैभवनो महिमा
लावीने सुपात्र जीव सम्यक्श्रद्धा करे छे.
(जुओ समयसार कलश २७३–२७४)