Atmadharma magazine - Ank 142
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २३४: आत्मधर्म: १४२
(२) अशुद्धसद्भुतव्यवहारथी मतिज्ञानादि विभावगुणोनो आधार होवाने लीधे ‘अशुद्धजीव’ छे.
(३) शुद्धनिश्चयथी सहजज्ञानादि परमस्वभावगुणोनो आधार होवाने लीधे ‘कारणशुद्धजीव’ छे.
अहीं, पहेला बोलमां ‘केवळज्ञानादि शुद्धगुणो’ कहेतां शुद्धपर्यायो छे.
ए ज प्रमाणे बीजा बोलमां ‘मतिज्ञानादि विभावगुणो’ कह्या ते पण पर्यायो छे.
ए ज रीते त्रीजा बोलमां पण ‘सहज ज्ञानादि परमस्वभावगुणो’ कह्युं तेमां पण पर्यायनो ज ध्वनि
लागे छे. ‘सहजज्ञानादि परमस्वभावगुणो’ कहेतां सहजज्ञानादिपरमस्वभाव पर्याय एटले के
‘कारणशुद्धपर्याय’ एवो ध्वनि छे, ते कारणशुद्धपर्यायनो आधार होवाथी आत्मा ‘कारण शुद्धजीव’ छे.
आ रीते त्रणे बोलमां ‘गुण’ कहेतां ‘पर्याय’ छे; पर्यायने ‘गुण’ शब्दथी पण घणीवार कहेवामां आवे
छे; जेम के सिद्धदशामां सम्यक्त्वादि आठ शुद्धपर्यायो प्रगटी होवा छतां तेने आठ गुणो तरीके कहेवाय छे. अने,
ए रीते पर्यायने ‘गुण’ कहेवानी आ टीकाकारनी खास शैलि छे. हवेनी गाथाओमां (गा. १० थी १पमां)
कारणशुद्धपर्यायनी जे वात स्पष्टपणे वर्णववाना छे तेनी आगाही अहीं मूकी दीधी छे. टीकाकारनी सामान्य
शैलि एवी छे के ‘अर्थपर्याय’ने माटे ‘गुण’ शब्द वापरे छे, ने व्यंजनपर्यायने माटे ‘पर्याय’ शब्द वापरे छे.
अहीं जीवना गुण–पर्यायो वर्णवे छे तेमां पण ए ज शैलि लीधी छे.
जीव चेतन छे; जीवना चेतन गुणो छे. जीव अमूर्त छे; जीवना गुणो पण अमूर्त छे.–आटली वात तो
गुणनी ज छे. हवे पर्यायनी वात करे छे.
‘आ शुद्ध छे; आना शुद्ध गुणो छे. आ अशुद्ध छे; आना अशुद्ध गुणो छे.’–आमां ‘गुण’ कहेतां
अर्थपर्यायनी वात छे. शुद्धगुणो कहेतां शुद्ध अर्थपर्यायो समजवी, अने अशुद्धगुणो कहेतां अशुद्ध अर्थपर्यायो
समजवी; गुणो कांई अशुद्ध न होय. शुद्ध जीवनी अर्थपर्यायो शुद्ध छे ने अशुद्ध जीवनी अर्थपर्यायो अशुद्ध छे.
केवळज्ञानादि शुद्धगुणोना आधारभूत जीवने कार्यशुद्धजीव कह्यो छे, ते शुद्ध जीवनी केवळज्ञानादि अर्थपर्यायो शुद्ध
छे. अने मतिज्ञानादि विभावगुणोना आधारभूत जीवने अशुद्धजीव कह्यो छे, ते अशुद्धजीवनी अर्थपर्यायो
अशुद्ध छे. आ रीते अहीं शुद्ध के अशुद्धगुणो कहेतां शुद्ध के अशुद्ध अर्थपर्यायो समजवी.
पछी कहे छे के ‘पर्याय पण छे.’ अहीं पर्याय कहेतां व्यंजनपर्याय समजवी. जेम अर्थपर्यायो शुद्ध ने
अशुद्ध एम बे प्रकारे छे तेम व्यंजनपर्यायो पण शुद्ध तेम ज अशुद्ध एम बे प्रकारे छे. तेमांथी जे जीवने जे
प्रकार योग्य होय ते समजी लेवो. अहीं व्यंजनपर्याय छे एटली सामान्य वात लीधी, पण ‘शुद्ध जीवने शुद्ध
व्यंजनपर्याय छे, एम न कह्युं, केम के अरिहंत भगवान कार्यशुद्धजीव छे. तेमने शुद्ध अर्थपर्याय होवा छतां
व्यंजन पर्याय शुद्ध नथी, एटले शुद्धजीवने शुद्धपर्याय (–व्यंजनपर्याय) छे ए वात लागु नथी पडती. अहीं
पर्याय कहेतां व्यंजन पर्यायनी अपेक्षा छे तेथी ‘शुद्ध जीवनी पर्याय शुद्ध छे’ एम न लेतां ‘पर्याय पण छे’ एम
सामान्य कथन लीधुं. सिद्धभगवंतोने शुद्ध व्यंजनपर्याय छे, ने संसारी जीवोने अशुद्ध व्यंजनपर्याय छे,–ए रीते
जेने जे योग्य होय तेने ते पर्याय समजवी. सिद्धभगवंतोने अर्थपर्याय शुद्ध छे ने व्यंजनपर्याय पण शुद्ध छे;
अरिहंतभगवंतोने अर्थपर्याय (केवळज्ञान वगेरे) शुद्ध छे ने व्यंजनपर्याय अशुद्ध छे.
अहीं खास ए बताववुं छे के–जेम ‘शुद्धगुणो’ ने ‘अशुद्धगुणो’ कहेवामां शुद्धअर्थपर्यायो ने अशुद्ध
अर्थपर्यायो बताववानो टीकाकारनो ध्वनि छे तेम ‘सहज ज्ञानादि परमस्वभावगुणो’ एम कहेवामां पण
कारणशुद्धपर्याय बताववानो टीकाकार मुनिराजनो ध्वनि छे. अहो! मुनिराजे टीकामां घणा ऊंडा रहस्यो भर्या
छे; ‘
णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता’ एटले के द्रव्यो विधविध गुण पर्यायोथी संयुक्त छे–एम मूळसूत्रमां कह्युं छे
तेमांथी अद्भुत टीका करी छे. सहजस्वभावगुण एटले के सहजस्वभावरूप कारणशुद्धपर्याय तेनो सदाय आधार
होवाथी आत्मा ‘कारणशुद्धजीव’ छे, तेने ज ‘कारणपरमात्मा’ पण कहेवाय छे.
आ कारणशुद्धजीवनी भावनाथी कार्यशुद्धजीव थवाय छे. भावना एटले एकाग्रता अथवा आश्रय; कारण