जिज्ञासु शिष्य पात्र थईने समजवा मांगे छे तेने माटे आ कथन छे. अहीं ४७ नयोथी आत्माना धर्मोनुं वर्णन चाले
छे. जेने अंतर्मुख आत्मस्वभावना अवलंबने सम्यक भावश्रुतज्ञान थयुं होय तेने ज साचा नयो होय छे.
हर्ष–शोकना विकारी परिणाम करे छे ने तेना फळरूप सुख–दुःखने भोगवे छे. कर्मना उदयने लीधे हर्ष–शोकनो
भोगवटो थाय छे–एम नथी, पण जीवनी पर्यायमां तेवो भोक्ताधर्म छे. जडकर्मनो कोई धर्म आत्मामां नथी, ने
आत्मानो कोई धर्म जड कर्मने लीधे नथी. कर्मना उदयने लीधे हर्ष–शोक थवानुं जे माने तेणे आत्मानो धर्म परने
लीधे मान्यो एटले खरेखर तेणे आत्माने जाण्यो नथी; तेम ज आत्मानी पर्यायमां हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं सर्वथा छे
ज नहि–एम माने तो तेणे पण आत्माना भोक्ताधर्मने मान्यो नथी,–ते पण मिथ्याद्रष्टि छे.
एवो धर्म केम थयो? तो कहे छे के जेम आत्मा सत् छे तेम तेना धर्मो पण सत् छे. पर्यायमां पण एकेक समयनुं
सत्पणुं छे. सतने विषे ‘आम केम’ एवो प्रश्न न होई शके.
हो के पर्याय पूरतो धर्म हो ते दरेक धर्म आत्मानो ज छे, कोई पण धर्म परने लीधे नथी.
निर्विकल्प प्रतीति छे, तेना ध्येयमां विकार नथी, त्रिकाळ एकरूप शुद्धचैतन्यस्वभावने ज ते कबूले छे. पण ते
सम्यग्दर्शननी साथे जे सम्यग्ज्ञान–प्रमाण छे ते सामान्य विशेषरूप वस्तुने जाणे छे, पर्यायनी अशुद्धताने पण ते
आत्मानी जाणे छे; पर्यायमां जे हर्ष–शोकरूप विकार थाय छे तेनो भोक्ता पण आत्मा छे एम भोक्तृनयथी
सम्यग्ज्ञानी जाणे छे. सामान्य धु्रवचैतन्यस्वभाव शुद्ध छे तेना निर्णयपूर्वकनुं सम्यग्ज्ञान हर्षादिभावोना वेदनने पण
पोतानी पर्यायना धर्म तरीके जाणे छे. स्वभावद्रष्टिनी प्रधानतामां तो विकार ते कर्मनुं ज कार्य छे–आत्मानुं कार्य
नथी एम पण कहेवाय, पण प्रमाणज्ञान ते पर्यायने जेम छे तेम जाणे छे, भोक्तृनयथी आत्मा ज विकारनो भोक्ता
छे–एम सम्यग्ज्ञान जाणे छे. आ रीते ‘ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे तहां समजवुं तेह.’ विकार जडनो छे एम
कहेनारनी द्रष्टि पोताना ज्ञानानंदस्वभाव उपर होवी जोईए. एकला जड उपर के विकार उपर ज द्रष्टि राखीने
विकारने जडनो कहे अने पोतानी पर्यायनो विवेक पण न करे तो तेनुं ज्ञान ज खोटुं छे. शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्याय
गौण थई जाय छे परंतु ज्ञान तो द्रव्य अने पर्याय बंनेने विषय करीने जेम छे तेम ओळखे छे; पर्यायमां विकार छे
तेने पण जाणे छे ने अविकारीस्वभावने पण जाणे छे.–ए प्रमाणे बंनेने जाणीने, शुद्धनयना अवलंबनना बळथी ते
स्वभावने साधतो जाय छे ने विकारने टाळतो जाय छे.
भोगववानो मारो त्रिकाळीधर्म नथी, पण क्षणिक पर्यायनो धर्म छे, मारो त्रिकाळी स्वभाव तो चैतन्यज्ञाता छे आवा
भानमां,
प्रथम भादरवोः २४८१