Atmadharma magazine - Ank 143
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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हता, क्षणे ने पळे निर्विकल्प थईने आत्माना आनंदस्वरूपमां झूलता हता एवा दिगंबर संतोनुं आ कथन छे. जे
जिज्ञासु शिष्य पात्र थईने समजवा मांगे छे तेने माटे आ कथन छे. अहीं ४७ नयोथी आत्माना धर्मोनुं वर्णन चाले
छे. जेने अंतर्मुख आत्मस्वभावना अवलंबने सम्यक भावश्रुतज्ञान थयुं होय तेने ज साचा नयो होय छे.
भोक्तानयथी आत्मा सुख–दुःखने भोगवे छे; हर्ष ते सुख ने शोक ते दुःख, एम अहीं सुख अने दुःख बंने
विकार छे. जेम रोगी हितकारी–अहितकारी अन्न खाय छे ने तेना फळरूप साता–असाताने भोगवे छे, तेम आत्मा
हर्ष–शोकना विकारी परिणाम करे छे ने तेना फळरूप सुख–दुःखने भोगवे छे. कर्मना उदयने लीधे हर्ष–शोकनो
भोगवटो थाय छे–एम नथी, पण जीवनी पर्यायमां तेवो भोक्ताधर्म छे. जडकर्मनो कोई धर्म आत्मामां नथी, ने
आत्मानो कोई धर्म जड कर्मने लीधे नथी. कर्मना उदयने लीधे हर्ष–शोक थवानुं जे माने तेणे आत्मानो धर्म परने
लीधे मान्यो एटले खरेखर तेणे आत्माने जाण्यो नथी; तेम ज आत्मानी पर्यायमां हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं सर्वथा छे
ज नहि–एम माने तो तेणे पण आत्माना भोक्ताधर्मने मान्यो नथी,–ते पण मिथ्याद्रष्टि छे.
आत्मानो भोक्ताधर्म परने कारणे नथी, तेम ज परने आत्मा भोगवतो नथी, पण पोतानी अवस्थामां
थता हर्ष शोकने भोगवे एवो तेनो एक धर्म छे.
कोई कहे छे के आत्मानी पर्यायमां हर्ष–शोकनो भोगवटो केम थाय छे?–शुं कर्मना उदयने लीधे थाय छे? तो
अहीं तेनो उत्तर कहे छे के आत्मामां वर्तमानमां तेवो ज भोक्ताधर्म छे, ते कोई बीजाना कारणे नथी. वळी पूछे के–
एवो धर्म केम थयो? तो कहे छे के जेम आत्मा सत् छे तेम तेना धर्मो पण सत् छे. पर्यायमां पण एकेक समयनुं
सत्पणुं छे. सतने विषे ‘आम केम’ एवो प्रश्न न होई शके.
अहीं प्रमाणना विषयरूप वस्तुनुं वर्णन छे एटले द्रव्य तेम ज पर्याय बंनेना धर्मोनुं वर्णन लीधुं छे. आ
धर्मोमां केटलाक धर्मो तो त्रिकाळ छे, ने केटलाक धर्मो त्रिकाळ नथी पण अमुक पर्याय पूरता ज छे. परंतु, त्रिकाळीधर्म
हो के पर्याय पूरतो धर्म हो ते दरेक धर्म आत्मानो ज छे, कोई पण धर्म परने लीधे नथी.
ज्यारे द्रव्यद्रष्टिनी प्रधानताथी आत्मानुं वर्णन चालतुं होय त्यारे एम कहेवाय के आत्मा पोताना शांत–
अनाकुळ अतीन्द्रिय आनंदस्वभावनो ज भोकता छे, विकारनो भोक्ता ते नथी. सम्यग्दर्शनमां तो शुद्ध आत्मानी
निर्विकल्प प्रतीति छे, तेना ध्येयमां विकार नथी, त्रिकाळ एकरूप शुद्धचैतन्यस्वभावने ज ते कबूले छे. पण ते
सम्यग्दर्शननी साथे जे सम्यग्ज्ञान–प्रमाण छे ते सामान्य विशेषरूप वस्तुने जाणे छे, पर्यायनी अशुद्धताने पण ते
आत्मानी जाणे छे; पर्यायमां जे हर्ष–शोकरूप विकार थाय छे तेनो भोक्ता पण आत्मा छे एम भोक्तृनयथी
सम्यग्ज्ञानी जाणे छे. सामान्य धु्रवचैतन्यस्वभाव शुद्ध छे तेना निर्णयपूर्वकनुं सम्यग्ज्ञान हर्षादिभावोना वेदनने पण
पोतानी पर्यायना धर्म तरीके जाणे छे. स्वभावद्रष्टिनी प्रधानतामां तो विकार ते कर्मनुं ज कार्य छे–आत्मानुं कार्य
नथी एम पण कहेवाय, पण प्रमाणज्ञान ते पर्यायने जेम छे तेम जाणे छे, भोक्तृनयथी आत्मा ज विकारनो भोक्ता
छे–एम सम्यग्ज्ञान जाणे छे. आ रीते ‘ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे तहां समजवुं तेह.’ विकार जडनो छे एम
कहेनारनी द्रष्टि पोताना ज्ञानानंदस्वभाव उपर होवी जोईए. एकला जड उपर के विकार उपर ज द्रष्टि राखीने
विकारने जडनो कहे अने पोतानी पर्यायनो विवेक पण न करे तो तेनुं ज्ञान ज खोटुं छे. शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्याय
गौण थई जाय छे परंतु ज्ञान तो द्रव्य अने पर्याय बंनेने विषय करीने जेम छे तेम ओळखे छे; पर्यायमां विकार छे
तेने पण जाणे छे ने अविकारीस्वभावने पण जाणे छे.–ए प्रमाणे बंनेने जाणीने, शुद्धनयना अवलंबनना बळथी ते
स्वभावने साधतो जाय छे ने विकारने टाळतो जाय छे.
भोगावळीकर्म ते जड छे, आत्माथी जुदुं छे, तेने आत्मा भोगवतो नथी, पण पोतानी पर्यायमां हर्ष–
शोकने भोगवे एवो आत्मानो भोक्ताधर्म छे. आ भोक्ताधर्मने जाणनार ज्ञानी एम जाणे छे के आ हर्ष–शोकने
भोगववानो मारो त्रिकाळीधर्म नथी, पण क्षणिक पर्यायनो धर्म छे, मारो त्रिकाळी स्वभाव तो चैतन्यज्ञाता छे आवा
भानमां,
प्रथम भादरवोः २४८१
ः २प९ः