भोगवटानी क्षणे ज ज्ञातास्वभावना अतीन्द्रियआनंदना अंशनो अनुभव वर्ते छे एटले ते हर्ष–शोकना
साक्षीपणारूप अभोक्ता धर्मनुं पण परिणमन वर्ती रह्युं छे.
साथे आत्माने ‘स्व–स्वामी संबंध’ नथी. आत्माना धर्मोनो स्वामी आत्मा छे ने जडकर्मोना धर्मोनुं स्वामी जड छे,
कोई एकबीजाना स्वामी नथी.
तीव्र आसक्तिना परिणाम तो तेने होय ज नहि; द्रव्यस्वभावनी सन्मुखतामां तेने भोगनी रुचि छूटी गई छे.
अस्थिरताथी जे हर्ष–शोकना परिणाम थाय छे ते अत्यंत अल्प छे ने चैतन्यस्वभावनी ज अधिकता छे. आत्माना
धर्मोनी साची ओळखाण थया पछी पण एवा ने एवा तीव्र विषयभोगना परिणाम रह्या करे एम कदी बने नहि.
आत्माना अतीन्द्रियसुखनो स्वाद जाण्यो त्यां इन्द्रियविषयोनुं अत्यंत तुच्छपणुं भास्या विना रहे नहि. आ रीते
साधकने पर्यायमांथी हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं क्रमे क्रमे टळतुं जाय छे. अने अनाकुळ शांतिनुं वेदन वधतुं जाय छे.–आवुं
भोक्तृनयनुं फळ छे. सर्वज्ञनी श्रद्धा कहो, क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत कहो, आत्माना धर्मोनी ओळखाण कहो, के कोई पण
न्याय ल्यो, ते बधायमां वस्तुनी एक ज सळंग सांकळ छे एटले के बधायनो सार तो चैतन्यद्रव्यनी सन्मुखतामां ज
आवीने ऊभो रहे छे. चैतन्यस्वभावनी सन्मुखता वगर सर्वज्ञनी श्रद्धा साची न थाय, क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा पण
साची न थाय, आत्माना कोई धर्मनी ओळखाण पण साची न थाय, अने कोई पण नय के कोई न्याय साचो होय
नहि. समकीति भले पोतानी पर्यायमां हर्ष–शोकना भोक्ताधर्मने जुए तोपण ते पोताना शुद्धचैतन्यनी सन्मुख द्रष्टि
राखीने ते धर्मने जाणे छे एटले तेने भोक्तापणानी प्रधानता रहेती नथी पण शुद्धचैतन्यस्वभावनी ज प्रधानता रहे
छे. परना भोकतापणानी तो मान्यता ज तेने नथी. जेने परना भोक्तापणानी मान्यता छे तेने तो आत्माना धर्मनी
सामे लक्ष ज नथी, परथी भिन्न आत्माना धर्मोनुं तेने भान ज नथी.
विषय खोटो छे एटले के तेनो विषय ज जगतमां नथी; अज्ञानी जेवुं माने छे तेवुं वस्तुनुं स्वरूप नथी; ने वस्तुनुं
स्वरूप जाण्या विना नय ज्ञान पण साचुं होय नहि. जेवुं पदार्थनुं स्वरूप होय तेवुं ज जाणे ते सम्यग्ज्ञान छे, एटले
सम्यग्ज्ञाननो विषय साचो छे. वस्तुस्वरूपनुं यथार्थज्ञान होय त्यां ज नय साचा होय.
नथी. साधक सम्यग्ज्ञानी तो आखी चैतन्यवस्तुना ज्ञानपूर्वक भोक्ताधर्मने तेना एक क्षणिक अंश तरीके जाणे छे,
एटले हर्ष शोकना भोक्तापणा वखते य अभोक्तारूप साक्षीधर्म पण तेने भेगो ज छे. जो भोक्ता वखते ज
अभोक्ताधर्म पण न वर्ततो होय, ने हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं ज एकांत वर्ततुं होय,–तो त्यां अनंतधर्मस्वरूप
आत्मवस्तु द्रष्टिमां न आवी एटले एकांत मिथ्यात्व थई गयुं, त्यां भोक्तानय पण होतो नथी. हर्ष–शोकना क्षणिक
भोगवटाने जाणतां, जेने अभोक्तारूप साक्षीस्वभावनुं पण भान वर्ते छे एवा ज्ञानीने ज भोक्तानय होय छे.
भोक्तापणुं तेम ज अभोक्तापणुं बंने धर्मो आत्मामां एकसाथे छे तेने जाणे तो अनेकान्त थाय, ने ते
अनेकान्तपूर्वक ज नय होय.